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भगवानका बारवां चातुर्मास
और अन्तिम-उपसर्ग
भगवान महावीर उपसर्गों के ऊपर उपसर्गों को इस प्रकार सहते. सहते और कठिन से कठिन तपस्या करते हुए चंपा नगरीमें पधारे । अग्निहोत्री ब्राह्मणों की धर्मशाला में ठहरकर अपना बारवां चतुर्मास वहीं किया। यहां चार महाने की तपस्या कर वर्षा बीत जानेपर पारणा किया । और पणमानी गांव की ओर बिहार कर दिया।
वहां आकर बस्तीके निकटवर्ती बनमें प्रभु एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो रहे । अपने बैलों को चराता हुआ एक ग्वाला वहां
आ निकला और अपने बैलोंको वहीं चरते हुए छोड़ वह थोड़ी देर के लिये अन्यत्र चला गया। बैल चरते चरते दूर चले गये, इनमें ही वह वाला वहां आया और वहां बैलोंको न देखा। वह ध्यानस्थ प्रभुसे पूछने लगा कि 'मेरे बैल कहां गये ?' मगर प्रभुत कुछ उत्तर न पाकर वह बैलोंको ढूढ़नेके लिये जंगल में इधर उधर भटकने लगा । जब खूब हैरान हो गया तब वह ग्वाला पुन: प्रभु के निकट श्राया और वहां देखा तो बैल चर रहे थे। यह देख उस बालको एक दम क्रोध आ गया। वह सोचने लगा कि हो न हो यह ध्यानस्थ मनुष्य कोई ठग है । इसे उचित दण्ड देना चाहिये। इतना विचार मनमें आते ही उसने लकड़ी की दो खिली अपनी कुल्हाड़ीसे बनाई और प्रभुके दोनों कानों में ठोक दी। उस समय प्रभुको अतुलनीय वेदना अवश्य हुई होगी परन्तु काँका बदला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com