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देर तक कड़ी वर्षाकी । चारों तरफ पृथ्वी धूलिसे भर गई, सम्पूर्ण वायुमंडल रजमिश्रित हो गया। सहस्रों जीवधारी प्राण रहित होगये और भगवानका शरीरभी धूलिसे ढक गया । चहुंओर प्रलयकारी भयानक दृश्य फैल गया। परन्तु भगवान पूर्ववत सुमेरु के समान अविचल तथा महासागर के सदृश गंभोरताको धारण किये, बिना गतिमान हुए ज्योंके त्यों ध्यानस्थ खड़े रहे।
यह देख संगम और भी क्रोधित हुआ और अपनी उग्र मायासे वहां उसने भयंकर विषैली चीटियों को उत्पन्न किया । उन चीटियोंसे प्रभु के शरीरके प्रत्येक भागको बहुत निर्दयतासे कटवाया । ऐसी निर्दयताको देख कलेजा थरथरा जाता है, धैर्य पलायन कर जाता है । परन्तु आत्म संयमी, दृढ़ संकल्पी, तपोनिधी भगवान, जिन्हें शरीर की कुछभो परवाह नहीं है, ऐसे भयंकर आतंक में भी पूर्ण निश्चल, निर्भीक और अपूर्व शान्तता धारण किये हुए ध्यानमग्न हैं।
ऐसा अवस्था में प्रभु का देख संगन का पारा और भी चढ़ गया । उसने तीसरी बार विषैले सर्प, बिच्छू, गोहरे आदि महा भयकर जन्तुओं को उत्पन्न कर प्रभु के शरीर पर छोड़ा। उन जन्तुओंने भी अपने मन की अच्छी तरह व.र ली। परन्तु जहां चण्डकौशिक सरीखे विषधर से भी प्रभुता कुछ न बिगड़ सका तो ये मायावी विषैले जन्तु विचारे क्या कर सकते थे। इतना सब कुछ होनेपर भी प्रभु के मन में लेशमात्र भ. द्वेष पैदा न हुआ। वे तो अपने आत्म बल से सभी उपसर्गों को शान्तता पूर्वक सहते चले गये । इस प्रकार पूरे महीने तक संगमने प्रभु के शरीरपर अनेक प्रकार की आपत्तियां ढाई । जिसे पढ़कर पाषाण हृदय भी चूर-चूर हो जाता है।
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