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केवल ज्ञान प्राप्तकर प्रभुन अपने निर्वाणतक हिंसाको दूर भगाकर अनेक राजा महाराजाओंको अहिंसाकी सुन्दर छाया में किस प्रकार प्रवेश कराया सो भी पाठकोसे अब छिपा नहीं है।
इस भरतखण्डमें अहिंसाका सतत् उपदेश देते हुए, भिन्नभिन्न स्थानोंमें आद्रकपुरके राजकुमार, दशार्णपुर के दशारणभद्र राजा इत्यादिको दीक्षित करते हुए बयालीसवों अन्तिम चतुरमासी के समय प्रभु महावीर पावापुरीमें हस्तिपाल राजाकी जीर्ण राजसभा दाणमंडिमें आकर विराजे । इस समय भगवानके इन्द्रभूति प्रमुख १४ हजार साधु, ३६ हजार साध्वियां, बारह व्रतधारी, एक लाख उनसठ हजार श्राविकाएं थीं। इनमेंसे ३१४ पूर्वधारी 'जिन' के समान अक्षरोंकी योजनाओंको जाननेवाले, १३०० अवधज्ञानी, ५०० मन पर्यवज्ञानी, सात सौ केवली, सात सौ विक्रयलब्धि धारक साधु, सात सौ अनुत्तर विमान स्वर्गमें जानेवाली और चार सौ विद्वानवादी थे जिनके साथ इन्द्रादि देव भी वाद करने में असमर्थ थे। इनके अतिरिक्त लाखों नर नारी ऐसे थे कि जिन्होंन भगवानके धार्मिक सिद्धांतोंको अन्तःकरणसे अपनाकर अपने दैनिक व्यवहारमें उतार लिया था । प्रभुके स्वहस्त दीक्षित सातसौ साधु
और चौदह सौ साध्वियां मोक्ष गये । ग्यारह गणधरामेंसे इन्द्रभूति ( गौतम ) और सुधर्मा स्वामीको छोड़कर शेष नौ गणधर इस समयतक मोक्ष सिधार चुके थे।
जब भगवान अपना अन्तिम उपदेश देनेके लिए पधारे तब वहां इन्द्र काशी देशका स्वामी मल्लकी गोत्रीय नव राजा तथा कोशल देशके लेछर्काय नव राजा इस प्रकार अनेक छोटे बड़े राजा महाराजा एकत्रित हुए और भगवानकी अमृतवाणी सुन उन्होंने अपना जीवन सफल किया ।
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