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दो कि गोशालाके साथ कोई भी व्यर्थ का वादाविवाद न करे । आनन्द मुनि ने वैसा ही किया।
इतने ही में गोशाला भी प्रभुके पास आ पहुंचा और कहने लगा- ऐ काश्यप ! यहां के लोगों के सामने तुम मुझं मंखली पुत्र गोशाला कहते हो और अपना शिष्य कह कर मुझे पाखंडी बताते हो । मगर तुम्हारा शिष्य गोशाला अवश्य था । वह तो स्वर्गवासी हो चुका । जब उस सुन्दर शक्तिशाली शरीर को मैंने निर्जीव देखा तो मैंने अपनी शरीर तो तपके वलसे वहीं छोड़ दिया और उस मृतक गोशालाके शरीर में प्रवेश कर गया । इसीसे तुम भ्रान्तिमें पड़े हो । मैं तो अरिहन्त मुनि हूं।'
तब भगवान बोले- 'गोशाला ! यो मिथ्या बोलकर क्यों तुम अपनी ही आत्मा का हनन करते हो । मुझसे तुम्हारी कोई भी वात छिपी नहीं है।'
इसपर गोशाला बहुत ही क्रोधित हो गया और कहने लगा कि 'क्या तुम्हारी आ ही गई है । मुंह बन्द करो नहीं तो अभी मटियामेट कर डालूंगा।'
गोशाला की इस प्रकार धृष्टता देख प्रभुके दो मुनियों को बहुत ही बुरा लगा । उन दोनोने अपने गुरूका अपमान देख शिक्षा रूपेण उस कुछ बोल बैठे । इसपर उसने तुरन्त अपनी तेजोलेश्या उन दोनों मुनियों का अर छोड़ी और बातकी बातमें वे आत्मध्यानी वनकर स्वर्ग सिधारे । इसपर तो गोशाला और भी गर्वित हो गया। अब
तो उसके क्रोधका ठिकाना न रहा । वह तो भगवानपर ही अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com