________________
१२१
सर्वश्रेष्ठ मानता था। यह सोच मनमें उदासी आ गई और माता के वचन शिरोधार्य वह राजा श्रेणि कसे मिलने आया । राजाने उसे बड़े हर्षसे हृदयसे लगाया और उसका मुख चूम उसके भाग्य की भूरि-भूरि प्रसंशाकी । बहुत कुछ वार्तालाप होनेके पश्चात् राजा तो अपने महलोंकी ओर रवाना हो गया, पर शालिभद्र मन में चिन्तित हो सोचने लगा कि 'मैं दुर्भागी हूं कि इतनी सम्पति पाकर भी मेरे ऊपर नाथ रह गया अब तो ऐसी तपस्या करनी चाहिये जिससे सिर पर नाथ न रहे।' इसप्रकार मनमें वैराग्य भावना उत्पन्न होते ही वह अपनी एक एक स्त्रीको प्रति दिन तजने लगा।
इधर तो शालिभद्र अपनी एक-एक स्त्रीको तज रहे थे कि उधर उसी नगरमें उनके बहनोई सेठ धनभद्र रहते थे। एक दिन शालिभद्रकी बहिन सुभद्रा उन्हें शीतल जलसे स्नान करा रही थी कि उसे अपने भाईकी याद आ गई और उसके आंखसे आंसूकी गरम-गरम बूंदे धनभद्र सेठके कंधेपर गिरी । इस तरह धनभद्र ने सुभद्राकी ओर देखा कि ऐसे सुखकी घड़ीमें यह रुदन क्यों ? उसने उसका कारण पूछा, तब बोली 'पतिदेव ! मैं तो अपनी मैं तो अपनी सातों सहेलियोंके साथ आपके सहवासमें सुखका अतुलनीय अनुभव कर रही हूं परन्तु मेरा भाई शालिभद्र संसार सुखको तिलांजलि दे एक-एक स्त्रीका रोज त्याग कर रहा है वह तो वैराग्य भावनासे पूरित हो चुका है। तब तो धनभद्र हंसे और बोले कि जव तेरा भाई वैराग्यसे रंग गया है तो एकदम सबको क्यों नहीं छोड़ देता । इससे मालूम होता है कि वह कुछ कायरता से कार्य कर रहा है । इसपर सुभद्राने ताना मारा । प्राणप्रिय ! आप तो सुख के मदमें चूर है आप वैसा करो तो पता पड़े। इतना सुनते ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com