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कि कहीं उसके सुनने में फरक न पड़ गया हो उसने फिरसे पूछा 'भगवन् यदि मुनि प्रसन्नचन्द्र इस समय मत्यु पा जाय तो कौन सी गतिमें जायेगे ?' प्रभुने कहा कि-'अब वे सर्वार्थ सिद्धि विमान में जायगे। राजा श्रेणिक अब तो 'चक्करमें पड़ गये। उन्होंन बूला भगवन् ! आपने एक ही क्षणके अन्तरपर दो बातें एकदूसरी से विपरीत कहीं इसका कारण क्या है । मेरे इस संशयको मेटिये ।
तव प्रभुने राजाकी उत्कंठा देख उसे यों कहा-श्रेणिक ! ध्यानके भेदमें प्रसन्नचन्द्र मुनि की अवस्था दो प्रकार की हो गई। पहिले दुर्मुखके वचनोंसे प्रसन्नमुनि अत्ययन्त क्रोधित हो अपने मंत्रियोंसे मन ही मन युद्व कर रहे थे; उसी समय तुमने उनकी वंदनाकी थी; और आकर मुझसे प्रश्न पूछा था। उस समय उनकी स्थिति नरकगात के योग्य हो रही थी। उसके पश्चात् उन्होंने मनमें विचार कि अब तो मेरे सब शत्र खूट गये, इसलिये अब मैं शिरस्त्राणसे ही शत्रुओं का नाश करूंगा। ऐसा सोचकर उन्होंने अपना हाथ शिर पर फेरा । वहां अपने लोच किये हुए चिकने शिरको देख, उन्हें तत्काल अपने मुनिव्रतका स्मरण हो पाया जिससे उन्हें अपने कियेका बहुत पश्चाताप हुआ। अपने इस कृत्यकी आलोचनाकर वे फिर शुक्ल ध्यानमें मग्न हो गये। उसी समय तुमने पुनः दूसरा प्रश्न किया । और उसी कारण तुम्हारे दूसरे प्रश्नका उत्तर दूसरा दिया गया ।
इस प्रकार श्रेणिक और सर्वज्ञ भगवानकी बात चीत हो ही रही थी कि इतनेमें ही प्रसन्नचन्द्र मुनिके समीप देव दुन्दुभि वगैरः
की गगनभेदी आवाज सुनाई देने लगी। उसे सुनकर श्रेणिकने पूछाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com