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जीव-विज्ञान
मिथ्यादर्शन है तो उसमें उन तीनों अज्ञानों में से कोई-न-कोई अज्ञान होगा, दर्शन में भी यदि वह चारित्री जीव होगा तो चक्षुदर्शन के साथ में उसका उपयोग बनेगा, नहीं तो अचक्षुदर्शन तो सभी जीवों में होता ही है। लब्धियों में भी दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ये पाँचों लब्धियाँ प्रत्येक जीव में होती ही हैं। यहाँ तक कि एकेन्द्रिय जीव में भी ये लब्धियाँ होती हैं क्योंकि ये अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है और इन कर्मों का क्षयोपशम हमेशा बना रहता है। कर्मों का यदि पूरा का पूरा क्षयोपशम भाव न हो या यह भी कह सकते हैं कि इन कर्मों का यदि पूरा आवरण आ जाए तो ये कर्म उस जीव के गुणों का ही घात कर देंगे। अर्थात् ज्ञान का क्षयोपशम भी सभी जीवों में रहता है। कोई भी जीव ऐसा नहीं होता जिसमें थोड़ा सा भी ज्ञान प्रकट न हो । क्षयोपशम का अर्थ हुआ-थोड़ी सी प्रकटता हो जाना। जैसे- जो ये माइक होते हैं और टेप रिकोर्डर होते हैं उनमें volume वाले पहिए होते हैं जिनसे हम उनका volume -(आवाज) कम ज्यादा करते हैं। आप विचार करें कि हम उनका volume कम करते गये और बिल्कुल कम कर दिया, volume बिल्कुल कम करने का मतलब आपको कुछ सुनाई ही न दे रहा हो तब यह तो हो गया उसका औदायिक भाव अर्थात् अब आपको कुछ भी सुनाई नहीं देगा। आपने उसको बहुत थोड़ा सा 1 के 1000 वें हिस्से का वोल्यूम बढ़ा दिया, भले ही वह आपको सुनाई न दे तो भी उसमें कुछ न कुछ प्रकटता आएगी और इसको हम कहेंगे -क्षयोपशम भाव।
क्षयोपशम भाव का अर्थ है-कुछ प्रकट हो जाना और कुछ अप्रकट रह जाना। volume की तो हमारे अंदर बहुत क्षमता है, पूरा loud कर सकते हैं लेकिन उस button ने उसका volume पूरा down कर दिया, अब मान लो हमने थोड़ा-सा उसको प्रकट किया तो जितना प्रकट हुआ वह तो हमको सुनाई पड़ रहा है और जो अप्रकट है वह उसके अंदर पड़ा हुआ है। हम उसको जब दो नम्बर पर, तीन नम्बर पर , चार नम्बर पर लाएंगे तो volume बढ़ जाएगा। यह क्या बढ़ रहा है? यह क्षयोपशम बढ़ रहा है। किसका क्षयोपशम बढ़ रहा है? उस आवाज का क्षयोपशम बढ़ रहा है। ऐसे ही हमारे ज्ञान में होता है जो इन पाँच लब्धियों के साथ होता है। जो एकेन्द्रियादि जीव होते हैं उनमें वह अत्यन्त कम होता है। मानो वह जीरो और एक बीच में रह रहा हो, आपको कुछ समझ ही नहीं आएगा कि वह कुछ है अथवा नहीं, ऐसा होगा फिर भी वह उसमें है। वह होना भी उसके क्षयोपशम ज्ञान को बताता है। ज्ञान हमेशा इस क्षयोपशम भाव के साथ रहेगा, वह एकदम शून्य नहीं हो जाएगा, जीरो पर नहीं पहुँच जाएगा। उसमें थोड़ा सा परिवर्तन जरूर होगा और वह होने के कारण से उसमें थोड़ी-सी प्रकट दशा आ जाएगी, बाकी जो बहुत सारा है वह अप्रकट है। इसी का नाम क्षयोपशमभाव होता है। जिन जीवों में ज्ञान बढ़ रहा है तो इसका अभिप्राय है-क्षयोपशमभाव बढ़ रहा है। क्षयोपशमभाव बढ़ेगा तो ज्ञान बढ़ेगा और क्षयोपशमभाव बढ़ने का मतलब है कि भीतर एक ऐसी प्रक्रिया चल रही है जिस प्रक्रिया में अंदर जो कर्म हैं, उन कर्मों के उदय को हम हटा रहे हैं, जो हमारे लिए आवरण के रूप में पड़े हैं उनको हम हटा रहे हैं। तो जितने कर्म हटेंगे जितना हमारे अन्दर क्षयोपशमभाव बढ़ेगा उतना हमारी आत्मा का ज्ञान भीतर से प्रकट होगा। आत्मा में ज्ञान तो है, भरा
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