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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, "पिंडनियुक्ति' तब पिंड़ कहलाते हैं । वो भी सचित्त, मिश्र और अचित्त तीन प्रकार से होते हैं । अचित्त का प्रयोजन । दो इन्द्रिय - चंदनक - शंख - छीप आदि स्थापना, औषध आदि कार्य में । तेइन्द्रिय - उधेही की मिट्टी आदि । चऊरिन्द्रिय - शरीर, आरोग्य के लिए, उल्टी आदि कार्य में मक्खी की अधार आदि । पंचेन्द्रिय पिंड़ - चार प्रकार से नारकी, तिर्यंच, मानव और देव । नारकी का व्यवहार किसी भी प्रकार नहीं हो सकता । तिर्यंच पंचेन्द्रिय का उपयोग - चमड़ा, हड्डियाँ, बाल, दाँत, नाखून, रोम, शींग, विष्टा, मूत्र आदि कारण के अवसर पर उपयोग किया जाता है । एवं वस्त्र, दूध, दही, घी आदि का उपयोग किया जाता है। मानव का उपयोग सचित्त मानव का उपयोग दीक्षा देने में एवं मार्ग आदि पूछने के लिए । अचित्त मानव की खोपरी वेश परिवर्तन आदि करने के काम में आए, एवं घिसकर उपद्रव शान्त करने के लिए । देव का उपयोग - तपस्वी या आचार्य अपनी मृत्यु आदि पूछने के लिए, एवं शुभाशुभ पूछने के लिए या संघ सम्बन्धी किसी कार्य के लिए करे । सूत्र-६८-८३
भावपिंड़ दो प्रकार के हैं । १. प्रशस्त, २. अप्रशस्त । प्रशस्त - एक प्रकार से दश प्रकार तक हैं । प्रशस्त भावपिंड़ एक प्रकार से यानि संयम । दो प्रकार यानि ज्ञान और चारित्र । तीन प्रकार यानि ज्ञान, दर्शन और चारित्र | चार प्रकार यानि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । पाँच प्रकार यानि - १. प्राणातिपात विरमण, २. मृषावाद विरमण, ३. अदत्तादान विरमण, ४. मैथुन विरमण और ५. परिग्रह विरमण । छ प्रकार से ऊपर के अनुसार पाँच
और छह रात्रि भोजन विरमण । सात प्रकार से - यानि सात पिंडैषणा, सात पाणैषणा, सात अवग्रह प्रतिमा । इसमें सात पिंडैषणा, वो संसृष्ट, असंसृष्ट, उद्भुत, अल्पलेप, अवगृहीत, प्रगृहीत, संसृष्ट – हाथ और पात्र खरड़ित, असंसृष्ट – हाथ और पात्र न खरड़ित, उद्धृत - कटोरे में नीकाला गया, अल्पलेप - पके हुए चने आदि । अवगृहीत - भोजन के लिए लिया गया, प्रग्रहित - हाथ में लिया हुआ नीवाला, उज्झितधर्म फेंकने योग्य ।
सात अवग्रह प्रतिमा यानि - वसति सम्बन्धी ग्रहण करने में अलग-अलग अभिग्रह रखना । जैसे कि- इस प्रकार का उपाश्रय ग्रहण करूँगा । इस प्रकार पहले सोचे हुए उपाश्रय याच कर उतरे वो । मैं दूसरों के लिए वसति माँगूंगा और दूसरों ने ग्रहण की हुई वसति में रहूँगा नहीं । मैं दूसरों के लिए अवग्रह नहीं माँगूंगा लेकिन दूसरों के अवग्रह में रहूँगा । मैं मेरा अवग्रह माँगूंगा लेकिन दूसरों के लिए नहीं माँगूंगा, मैं जिनके पास अवग्रह माँगूंगा उसका ही संस्तारक ग्रहण करूँगा, वरना खड़े-खड़े या उत्कटुक आसन पर रहूँगा । ऊपर की छठी के अनुसार ही विशेष इतना की शिलादि जिस प्रकार संस्तारक होगा उसका उसी के अनुसार उपयोग करूँगा, दूसरा नहीं, आठ प्रकार यानि आठ प्रवचन माता । पाँच समिति और तीन गुप्ति । नौ प्रकार से - नौ ब्रह्मचर्य की वाड़ । दश प्रकार से - क्षमा आदि दश प्रकार का यतिधर्म । इस दश प्रकार का प्रशस्त भावपिंड़ श्री तीर्थंकर भगवंत ने बताया है।
अप्रशस्त भावपिंड़ एक तरीका यानि असंयम दो प्रकार से यानि - अज्ञान और अविरति । तीन प्रकार से यानि - मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति । चार प्रकार से यानि - क्रोध, मान, माया और लालच । पाँच प्रकार से यानि - प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह । छ प्रकार से यानि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय की विराधना । सात प्रकार से यानि - आयु बिना सात कर्म के बँध के जवाबदार अध्यवसाय । आठ प्रकार से यानि - आठ कर्म के बँध के कारणभूत अध्यवसाय । नौ प्रकार से यानि - ब्रह्मचर्य की नौ गुप्ति का पालन न करना । दश प्रकार से यानि - क्षमा आदि दश यतिधर्म का पालन न करना।
अप्रशस्त और प्रशस्त भावपिंड़ जिस प्रकार के भावपिंड़ से ज्ञानवरणादि कर्म का क्षय हो आत्मा कर्म से मुक्त होता जाए उसे प्रशस्त भावपिंड़ समझना । यहाँ एकादि प्रकारो को पिंड़ कैसे कहते हैं? इस शंका के समाधान में समझो कि उस प्रकार को आश्रित करके उसके अविभाग्य अंश समूह को पिंड़ कहते हैं । या इन सबसे परिणाम के भाव से जीव को शुभाशुभ कर्मपिंड बाँधा जाने से उसे भावपिंड़ कहते हैं । यहाँ हम प्रशस्त भावपिंड और शुद्ध अचित्त द्रव्यपिंड़ से कार्य है, क्योंकि मोक्ष के अर्थी जीव को आठ प्रकार की कर्म समाने बेड़ियाँ तोड़ने के लिए प्रशस्त भावपिंड जरुरी है। उसमें अचित्त द्रव्यपिंड सहायक बनता है, इसलिए वो ज्यादा जरुरी है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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