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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' की विशेष कारण से मायापिंड़ ले सकते हैं। सूत्र - ५१९-५२१
रस की आसक्ति से सिंह केसरिया लड्डू, घेबर आदि आज मैं ग्रहण करूँगा । ऐसा सोचकर गोचरी के लिए जाए, दूसरा कुछ मिलता हो तो ग्रहण न करे लेकिन अपनी ईच्छित चीज पाने के लिए घूमे और ईच्छित चीज चाहिए उतनी पाए उसे लोभपिंड़ कहते हैं । साधु को ऐसी लोभपिंड़ दोषवाली भिक्षा लेना न कल्पे | चंपा नाम की नगरी में सुव्रत नाम के साधु आए हुए थे। एक बार वहाँ लड्डु का उत्सव था इसलिए लोगों ने प्रकार-प्रकार के लड्ड बनाए थे और खाते थे । सुव्रत मुनि ने गोचरी के लिए नीकलते ही मन में तय किया कि, आज तो सिंहकेसरिया लड्ड भिक्षा में लेने हैं | चंपानगरी में एक घर से दूसरे घर घूमते हैं, लेकिन सिंहकेसरिया लड्ड नहीं मिलते । घूमतेघूमते दो प्रहर बीत गए लेकिन लड्डू नहीं मिला, इसलिए नजर लड्डू में होने से मन भटक गया । फिर तो घर में प्रवेश करते हुए 'धर्मलाभ' की बजाय सिंहकेसरी' बोलने लगे । ऐसे ही पूरा दिन बीत गया लेकिन लड्ड न मिले । रात होने पर भी घूमना चालु रहा । रात के दो प्रहर बीते होंगे वहीं एक गीतार्थ और बुद्धिशाली श्रावक के घर में 'सिंहकेसरी' बोलते हुए प्रवेश किया । श्रावक ने सोचा, दिन में घूमने से सिंहकेसरी लड्डू नहीं मिला इसलिए मन भटक गया है । यदि सिंहकेसरी लड्डू मिले तो चित्त स्वस्थ हो जाए । ऐसा सोचकर श्रावक ने 'पधारो भगवंत' सिंहकेसरिया लड्डू का पूरा डिब्बा लेकर उनके पास आकर कहा कि, लो महाराज सिंहकेसरिया लड्डू । ग्रहण करके मुझे लाभ दो । मुनि ने लड्डू ग्रहण किए । पात्रा में सिंहकेसरिया लड्डू आने से उनका चित्त स्वस्थ हो गया।
श्रावक ने मुनि को पूछा कि, 'भगवन् ! आज मैंने पुरीमड्ढ का पच्चक्खाण किया है, तो वो पूरा हुआ कि नहीं ?' सुव्रत मुनि ने समय देखने के लिए आकाश की ओर देखा, तो आकाश में कईं तारों के मंडल देखे और अर्ध रात्रि होने का पता चला । अर्धरात्री मालूम होते ही मुनि सोच में पड़ गए । अपना चित्तभ्रम जाना । हा ! मूर्ख ! आज मैंने क्या किया ? अनुचित आचरण हो गया । धिक्कार है मेरे जीवन को, लालच में अंध होकर दिन और रात तक घूमता रहा । यह श्रावक उपकारी है कि सिंहकेसरी लड्डू वहोराकर मेरी आँखें खोल दी । मुनि ने श्रावक को कहा कि, महाश्रावक ! तुमने अच्छा किया सिंहकेसरी लड्डू देकर पुरिमड्ढ पच्चक्खाण का समय पूछकर संसार में डूबने से बचाया । रात को ग्रहण करने से अपनी आत्मा की नींदा करते हुए और लड्डू परठवते हुए शुक्ल ध्यान में बैठे, क्षपकश्रेणी से लेकर लड्डू के चूरे करते हुए आत्मा पर लगे घाती कर्म को भी चूरा कर दिया । केवलज्ञान हुआ। इस प्रकार लोभ से भिक्षा लेना न कल्पे । सूत्र- ५२२-५३१
संस्तव यानि प्रशंसा । वो दो प्रकार से है। १. सम्बन्धी संस्तव, २. वचन संस्तव । सम्बन्धी संस्तव परिचय समान है और प्रशंसा वचन बोलना वचन संस्तव है। सम्बन्धी संस्तव में पूर्व संस्तव और पश्चात संस्तव । वचन संस्तव में भी पूर्व संस्तव और पश्चात संस्तव ये दो भेद होते हैं।
सम्बन्धी पूर्व संस्तव - माता-पितादि के रिश्ते से पहचान बनाना । साधु भिक्षा के लिए घूमते हुए किसी के घर में प्रवेश करे, वहाँ आहार की लंपटता से अपनी और सामनेवाले की उम्र जानकर उम्र के रिश्ते से बोले । यदि वो स्त्री वृद्धा और खुद मध्यम आयु का हो तो कहे कि, मेरी माँ तुम जैसी थी। वो स्त्री मध्यम उम्र की हो तो कहे कि, मेरी बहन तुम जैसी थी ! छोटी उम्र हो तो कहे कि, मेरी पुत्री या पुत्र की पुत्री तुम जैसी थी । इत्यादि बोलकर आहार पाए । इस से सम्बन्धी पूर्वसंस्तव दोष लगे । सम्बन्धी पश्चात् संस्तव - पीछे से रिश्ता हआ हो तो सासससुर आदि के रिश्ते से पहचान बनाना । मेरी सांस, पत्नी तुम जैसे थे आदि बोले वो सम्बन्धी पश्चात् संस्तव हैं।
वचन पूर्व संस्तव - दातार के गुण आदि जो पता चला हो, उसकी प्रशंसा करे । भिक्षा लेने से पहले सच्चे या झूठे गुण की प्रशंसा आदि करना । जैसे कि, 'अहो ! तुम दानेश्वरी हो उसकी केवल बात ही सुनी थी लेकिन आज तुम्हें प्रत्यक्ष देखा है । तुम जैसे बड़े आदि गुण दूसरों के नहीं सुने । तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हारे गुण की प्रशंसा चारों दिशा में पृथ्वी के अन्त तक फैली है । आदि बोले । वो वचन पूर्व संस्तव कहलाता है । वचन - पश्चात् मुनि दीपरत्नसागर कृत् (पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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