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________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, "पिंडनियुक्ति' सकता है । यह भावनापूर्वक मूर्छा रहित वो आहार खाने से विशुद्ध अध्यवसाय होते ही क्षपकश्रेणी लेकर और खाए रहने से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इस प्रकार भाव से शुद्ध आहार गवेषणा करे फ़िर भी आधाकर्मी आहार आ जाए तो खाने के बावजूद भी वो आधाकर्मी के कर्मसे नहीं बँधता, क्योंकि वो भगवंत की आज्ञा का पालन करता tic शंका- जिस अशुद्ध आहारादि को साधु ने खुद ने नहीं बनाया, या नहीं बनवाया और फिर बनानेवाले की अनुमोदना नहीं की उस आहार को ग्रहण करने में क्या दोष ? तुम्हारी बात सही है । जो कि खुद को आहार आदि नहीं करता, दूसरों से भी नहीं करवाता तो भी यह आहारादि साधु के लिए बनाया है । ऐसा समझने के बावजूद भी यदि वो आधाकर्मी आहार ग्रहण करता है, तो देनेवाले गृहस्थ और दूसरे साधुओं को ऐसा लगे कि, 'आधाकर्मी आहारादि देने में और लेने में कोई दोष नहीं है, यदि दोष होता तो यह साधु जानने के बावजूद भी क्यों ग्रहण करे ?' ऐसा होने से आधाकर्मी आहार में लम्बे अरसे तक छह जीव निकाय का घात चलता रहता है । जो साधु आधाकर्मी आहार का निषेध करे या 'साधु को आधाकर्मी आहार न कल्पे । और आधाकर्मी आहार ग्रहण न करे तो ऊपर के अनुसार दोष उन साधु को नहीं लगता । लेकिन आधाकर्मी आहार मालूम होने के बावजूद जो वो आहार ले तो यकीनन उनको अनुमोदना का दोष लगता है । निषेध न करने से अनुमति आ जाती है । और फिर आधाकर्मी आहार खाने का शौख लग जाए, तो ऐसा आहार न मिले तो खुद भी बनाने में लग जाए ऐसा भी हो, इसलिए साधु को आधाकर्मी आहारादि नहीं लेना चाहिए। जो साधु आधाकर्मी आहार ले और उसका प्रायश्चित्त न करे, तो वो साधु श्री जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा का भंजक होने से उस साधु का लोच करना, करवाना, विहार करना आदि सब व्यर्थ-निरर्थक है । जैसे कबूतर अपने पंख तोड़ता है और चारों ओर घूमता है लेकिन उसको धर्म के लिए नहीं होता । ऐसे आधाकर्मी आहार लेनेवाले का लोच, विहार आदि धर्म के लिए नहीं होते। सूत्र - २४१-२७२ औदेशिक दोष दो प्रकार से हैं । १. ओघ से और २. विभाग से । ओघ से यानि सामान्य और विभाग से यानि अलग-अलग । ओघ औद्देशिक का बयान आगे आएगा, इसलिए यहाँ नहीं करते । विभाग औद्देशिक बारह प्रकार से है । वो १.उदिष्ट, २.कृत और ३.कर्म । हर एक के चार प्रकार यानि बारह प्रकार होते हैं । ओघ औद्देशिक - पूर्वभवमें कुछ भी दिए बिना इस भव में नहीं मिलता । इसलिए कुछ भिक्षा हम देंगे । इस बुद्धि से गृहस्थ कुछ चावल आदि ज्यादा डालकर जो आहारादि बनाए, उसे ओघऔद्देशिक कहते हैं । ओघ-यानि इतना हमारा, इतना भिक्षुक का ।' ऐसा हिस्सा किए बिना आम तोर पर किसी भिक्षुक को देने की बुद्धि से तैयार किया गया अशन आदि ओघ औद्देशिक कहलाता है । हिस्सा -यानि विवाह ब्याह आदि अवसर पर बनाई हुई चीजें बची हो, उसमें से जो भिक्षुक को ध्यान में रखकर अलग बनाई हो वो विभाग औद्देशिक कहलाता है। उसके बारह भेद । इस प्रकार उद्दिष्ट - अपने लिए ही बनाए गए आहार में से किसी भिक्षुक को देने के लिए कल्पना करे कि 'इतना साध को देंगे' वह । कत - अपने लिए बनाया हआ, उसमें से उपभोग करके जो बचा हो वह । भिक्षक को दान देने के लिए छकायादि का सारंग करे वहाँ उद्दिष्ट, कृत एवं कर्म प्रत्येक के चार चार भेद । उद्देश - किसी भी भिक्षुक को देने के लिए कल्पित । समुद्देश- धूर्त लोगों को देने के लिए कल्पित । आदेश - श्रमण को देने के लिए कल्पित । समादेश - निर्ग्रन्थ को देने के लिए कल्पित । उद्दिष्ट, उद्देशिक - छिन्न और अछिन्न । छिन्न – यानि हमेशा किया गया यानि जो बचा हे उसमें से देने के लिए अलग नीकाला हो वो । अछिन्न - अलग न नीकाला हो लेकिन उसमें से भिक्षाचरों को देना ऐसा उद्देश रखा हो। छिन्न और अछिन्न दोनों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऐसे आठ भेद होते हैं । कृत उद्देशिक, छिन्न और अछिन्न दोनों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऐसे आठ भेद । कर्म उद्देशिक ऊपर के अनुसार आठ भेद । द्रव्य अछिन्न-बची मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 19
SR No.034710
Book TitleAgam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 2, & agam_pindniryukti
File Size2 MB
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