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आगम सूत्र १७, उपांगसूत्र-६, 'चन्द्रप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र ही उत्तरार्द्धमंडल की संस्थिति समझना । जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर उत्तर अर्द्धमंडल संस्थिति का संक्रमण करके गति करता है तब उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । उत्तरस्थित अभ्यन्तर से दक्षिण की तरफ संक्रमण होता है और दक्षिण से उत्तर की तरफ उपसंक्रमण होता है । इसी तरह इसी उपाय से यावत् सर्वबाह्य दक्षिणार्ध मंडल की संस्थिति प्राप्त करके यावत् दक्षिण दिशा सम्बन्धी सर्वबाह्यमंडल के अनन्तर उत्तरार्धमंडल की संस्थिति को प्राप्त करते हैं । उत्तर से सर्वबाह्य तीसरी दक्षिणार्धमंडल संस्थिति में गमन करता है। इसी तरह यावत् सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करते हैं तब दूसरे छह मास होते हैं । ऐसे दूसरे छ मास परिपूर्ण होते हैं। यहीं आदित्य संवत्सर है और यहीं आदित्य संवत्सर का पर्यवसान है।
प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-३ सूत्र-२८
कौन सा सूर्य, दूसरे सूर्य द्वारा चीर्ण-मुक्त क्षेत्र का प्रतिचरण करता है ? निश्चय से दो सूर्य कहे हैं भारतीय सूर्य और ऐरावतीय सूर्य । यह दोनों सूर्य त्रीश-त्रीश मुहूर्त प्रमाण से एक अर्द्धमंडल में संचरण करते हैं । साठ-साठ मुहूर्तों से एक-एक मंडल में संघात करते हैं । निष्क्रमण करते हुए ये दोनों सूर्य एक दूसरे से चीर्ण क्षेत्र में संचरण नहीं करते किन्तु प्रवेश करते हुए संचरण करते हैं । यह जंबूद्वीप नामक द्वीप सर्व द्वीप समुद्र से घीरा हुआ है । उसमें यह भारतीय सूर्य, मध्य जंबूद्वीप के पूर्वपश्चिम दिशा से विस्तारयुक्त और उत्तरदक्षिण दिशा में लम्बी जीवा के १२४ विभाग करके, दक्षिणपूर्व के मंडल के चतुर्थ भाग में ९२ संख्यावाले मंडलों में संचार करते हैं । उत्तरपश्चिम में मंडल के चतुर्थ भाग में ९१ मंडलों को भारतीय सूर्य चीर्ण करता है । यह भारतीय सूर्य, ऐरावतीय सूर्य के मंडलों को मध्य जंबूद्वीप के पूर्वपश्चिम लम्बे क्षेत्र को छेद करके उत्तरपूर्व दिगभाग के मध्य में चतुर्भाग मंडल के ९२ मंडल को व्याप्त करके उसमें प्रतिचरण करता है । इसी प्रकार दक्षिणपूर्व दिशा में चतुर्भाग में ९१ मंडलों को प्रतिचरित करता है । उस समय यह ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से प्रतिचरित दक्षिणपश्चिम मध्य में चतुर्भाग ९२ मंडलों को प्रतिचरित करता है। और उत्तर पूर्व में ९१ मंडलों को प्रतिचरित करता है । इस तरह निष्क्रमण करते हुए यह दोनों सूर्य परस्पर एक दूसरे के चीर्ण क्षेत्र को प्रतिचरित नहीं करते, किन्तु प्रवेश करते हुए ये दोनों एक दूसरे के चीर्ण क्षेत्र को प्रतिचरित करते हैं ।
प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-४ सूत्र-२९
भारतीय एवं ऐरवतीय सूर्य परस्पर कितने अन्तर से गति करता है ? अन्तर सम्बन्धी यह छह प्रतिपत्तियाँ हैं। कोई एक परमतवादी कहता है कि ये दोनों सूर्य परस्पर एक हजार योजन के एवं दूसरे एकसो तैंतीस योजन के अन्तर से गति करते हैं । कोई एक कहते हैं कि ये एक हजार योजन एवं दूसरे १३४ योजन अंतर से गति करते हैं । कोई एक ऐसा कहते हैं कि यह अंतर एक हजार योजन एवं दूसरा १३५ योजन का है । चौथा अन्यतीर्थि का कथन है कि दोनों सूर्य एक द्वीप-समुद्र के परस्पर अंतर से गति करते हैं। कोई यह अन्तर दो-दो द्वीप समुद्रों का बतलाते हैं और छट्ठा परतीर्थिक दोनों सूर्यों का परस्पर अन्तर तीन-तीन द्वीप समुद्रों का बतलाते हैं । भगवंत कहते हैं कि यह दोनों सूर्य की गति का अन्तर नियत नहीं है, वे जब सर्वाभ्यन्तर मंडल से निष्क्रमण करता है तब पाँच-पाँच योजन और एक योजन के पैंतीस एकसट्रांश भाग के अन्तर से प्रत्येक मंडल में अभिवृद्धि करते हुए और बाह्य मंडल से अभ्यन्तर मंडल की तरफ प्रवेश करते हए कम करते-करते गति करते हैं।
यह जंबूद्वीप सर्वद्वीप समुद्रों से परिक्षेप से घीरा हआ है । जब ये दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल का संक्रमण करके गति करते हैं तब एक प्रकार से ९९००० योजन का और दूसरा ६४० योजन का परस्पर अन्तर होता है । उस समय उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । निष्क्रम्यमान वे सूर्यों नूतन संवत्सर के पहले अहोरात्र में अभ्यन्तर मंडल के प्रथम मंडल का उपसंक्रमण करके जब दूसरे मंडल में गति करता है, तब ९९६४५ योजन एवं एक योजन के पैंतीस एकसट्ठांश भाग जितना परस्पर अन्तर रखके यह दोनों सूर्य गति करते हैं। उस समय दो एकसट्ठांश मुहूर्त दिन की हानि और रात्रि की वृद्धि होती है । जब यह दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर निष्क्रमण कर दूसरे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (चन्द्रप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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