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आगम सूत्र १७, उपांगसूत्र-६, 'चन्द्रप्रज्ञप्ति'
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प्राभृत-११ सूत्र-१०३
हे भगवन् ! संवत्सर का प्रारंभ किस प्रकार से कहा है ? निश्चय से पाँच संवत्सर कहे हैं-चांद्र, चांद्र, अभिवर्धित, चांद्र और अभिवर्धित । इसमें जो पाँचवे संवत्सर का पर्यवसान है वह अनन्तर पुरस्कृत समय यह प्रथम संवत्सर की आदि है, द्वितीय संवत्सर की जो आदि है वहीं अनन्तर पश्चात्कृत् प्रथम संवत्सर का समाप्ति काल है । उस समय चंद्र उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के छब्बीस मुहूर्त एवं एक मुहूर्त के छब्बीस बासट्ठांश भाग तथा बासठवें भाग को सडसठ से विभक्त करके चोपन चूर्णिका भाग शेष रहने पर योग करके परिसमाप्त करता है । और सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र से सोलह मुहूर्त एवं एक मुहूर्त के आठ बासट्ठांश भाग तथा बासठवे भाग को सडसठ से विभक्त करके बीस चूर्णिका भाग शेष रहने पर योग करके प्रथम संवत्सर को समाप्त करते हैं।
इसी तरह प्रथम संवत्सर का पर्यवसान है वह दूसरे संवत्सर की आदि है, दूसरे का पर्यवसान वह तीसरे संवत्सर की आदि है, तीसरे का पर्यवसान वह चौथे संवत्सर की आदि है, चौथे का पर्यवसान, वह पाँचवे संवत्सर की आदि है। तीसरे संवत्सर के प्रारंभ का अनन्तर पश्चात्कृत् समय दूसरे संवत्सर की समाप्ति है. यावत्.. प्रथम संवत्सर की आदि का अनन्तर पश्चात्कृत् समय पाँचवे संवत्सर की समाप्ति है।
दूसरे संवत्सर की परिसमाप्ति में चन्द्र पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र से योग करता है, तीसरे में उत्तराषाढ़ा से, चौथे में उत्तराषाढ़ा और पाँचवे संवत्सर की समाप्ति में भी चन्द्र उत्तराषाढ़ा नक्षत्र से योग करता है और सूर्य दूसरे से चौथे संवत्सर की समाप्ति में पुनर्वसु से तथा पाँचवे संवत्सर की समाप्ति में पुष्य नक्षत्र से योग करता है।
। नक्षत्र के मुहूर्त आदि गणित प्रथम संवत्सर की समाप्ति में दिए हैं, बाद में दूसरे से पाँचवे की समाप्ति में छोड़ दिए हैं। अक्षरश: अनुवाद में गणितीक क्लिष्टता के कारण ऐसा किया है । जिज्ञासुओं को विज्ञप्ति की वह मूल पाठ का अनुसरण करे।
प्राभृत-११-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत्" (चन्द्रप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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