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F) गूंज स्पष्ट प्रतीत होती है।
बौद्धभिक्षु श्री धर्मानन्द कौसाम्बी ने 'पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म' पुस्तक में लिखा है कि 'शुरु-शुरु में तो ईसाई समाज अपरिग्रही होता था । कुछ सम्पत्ति होती तो उसे वे सार्वजनिक काम में लगाते थे। अतः यह कहा जा सकता है कि पार्श्वनाथ के चार यामों को उन्होंने काफी हद तक अंगीकार किया था।'
'हत्या न करो, झूठी साक्षी मत दो, चोरी न करो, व्यभिचार न करो, पराई वस्तु का लोभ न करो ।' महात्मा ईसा की ये शिक्षाएँ जैन अणुव्रतों की भावना के अनुरुप ही हैं । इसका कारण यह है कि ईसा ने जैन-श्रमणों के निकट रहकर शिक्षा पाई थी।' ऐसा नागेन्द्रनाथ वसु, एम. ए. ने हिन्दी विश्वकोष भाग ३, सन् १९१९ के १२८ वें पृष्ठ पर लिखा है। पं. सुन्दरलाल ने 'हजरत ईसा और ईसाई धर्म' नामक पुस्तक के १६२ वें पृष्ठ पर लिखा है कि भारत में आकर हजरत ईसा बहुत समय तक जैन साधुओं के साथ रहे । जैन साधुओं से उन्होंने आध्यात्मिक शिक्षा तथा आचार-विचार की मूल भावना प्राप्त की।'