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(६०) श्री सुधर्मगल परीका. ॥(श्रोता परीक्षानी) सजाय ॥
(राग कालंगहो) वरसे पुष्करावर्त सुमेहा । तब पृथ्वी जेदाये नीर। पण एक मगसेलीन नेदाय । अति न्हानो ने कठिन शरीर ॥१॥तिम गुरुवचने किमें न जेदाय । जे प्राणी होय जारी कर्म। कंठ (धुंक) शोष जो अति घणो कीजे । तोय न पामे सूधो धर्म ॥तिम ॥२॥बावनाचंदन गंध तजीने । कसमल ऊपर माखी जाय । परिमल कमलतणो मीने । मेमकमो नित कादव खाय ॥ तिम॥३॥ काले कांबल गुलियलि कापम । चोलतणो नधि बेसे रंग । वायस वान न थाये धोलो । जो नित मोहे यमुना गंग ॥ तिमः॥४॥ चिगटे कुंने जल नवि दे । न रहे काणे लाजन नीर । रवि देखी घूवम हुए थंधो । पान न सहे वसंत करीर ॥ तिम॥ ॥ ५ ॥ मूंग कांगडू कण माहे जेवो । पाणी श्रगनि न बीपे अंस । जव केलव्या न होवे तंबुल । बग सीखव्या न थाये हंस ॥ तिम० ॥६॥ मृगमद अगर कपूरे वास्यो। लसण न पामे रूमो गंध । सूरज शशिहर दीवाजोतें। किमही नवि देखे जात्यंध॥तिम ॥॥ जग्यो चंद चोरने न गमे । मेहें जवासो सूकी
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