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स्वार्थमाटे स्नेह करे छे. मारो ऋषभ दुःखी होशे एवी रीतनां दुःखथी सर्वदा रुदन करवाथी मारी तो आंखो पण गइउं । अने ऋषभ तो आवी ते सुरासुरथी सेवातो थको मारी खबर अंतर माटे तो कई संदेशो पण मोकलतो नथी । धिक्कार छे आ स्नेहने । इत्यादि विचार करता केवलज्ञान उत्पन्न थयुं अने तेज बखते आयुकर्मनां क्षयथी ते मोक्षे गयां ।
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अर्थात- ( भरतने मरुदेवी से कहा कि ) अपने पुत्र ऋषभदेवकी ऋद्धिको देखो । भरतका ऐसा वचन सुनकर हर्षसे रोमांचित अंग होकर मरुदेवी माता के नेत्रों से हर्षके आंसू निकल पड़े और उन आंसुओंसे उसकी आंखें निर्मल हो गईं । तथा भगवान ऋषभदेवकी छत्र, चामर आदि प्रतिह की शोभा देखकर मरुदेवी विचारने लगी कि मोहसे विव्हल हुए नीवोंको धिक्कार है । समस्त जीव अपने मतलब के लिये ही दूसरोसे प्रेम करते हैं । " मेरा पुत्र ऋषभनाथ बनमें रहने से दुखी होगा " ऐसे दुख से रुदन करते करते मेरी तो आंखें थक गई किन्तु ऋषभनाथ तो सुर असुरों द्वारा सेवित होकर इस प्रकार ऋद्धिको भोगता हुआ मेरी स्वबर के लिये कोई संदेश भी नहीं भेजता है । इस कारण इस स्नेहभावको fasara है । इत्यादि विचार करते करते ( हाथीपर बैठे हु वस्त्र आभूषण आदि पहने हुए ही ' मरुदेवीको केवलज्ञान उत्पन्न होगया और उसी समय आयुकर्मके क्षय होजानेसे वह मोक्ष चली गई ।
इस प्रकार मरुदेवी तो बिना कुछ परिग्रह आदिका परित्याग किये हाथीपर चढी हुई ही मोक्ष चली गई । किन्तु रतिसार कुमार अपने राज महलके भीतर अपनी स्त्रियोंके बीच में बैठे हुए ही अपनी सौभाग्यसुंदरी नामक स्त्रीके मस्तक पर खिचे हुए तिलकको मिटा देने पर उसकी सुंदरता घटते हुए देख कर विरक्तचित्त होगया । इस वैराग्यके कारण ही उस रतिसार कुमाको उसी महलमें स्त्रियोंके बीच बैठे बैठे केवलज्ञान होगया ।
तदनन्तर क्या हुआ ? सो रतिसार कुमार चरित्र नामक पुस्तकक (सन् १९२३ में पं. काशीनाथजी जैन कलकत्ताद्वारा प्रकाशित ) ६७ वें पृष्ठपर यों लिखा है
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