________________
आद्य-वक्तव्य.
विचारचतुरचेता पाठक महानुभाव ! जैनधर्मका प्रवर प्रतापशाली सूर्य किसी समय न केवल इस भारतवर्ष में किन्तु अन्य देशों में भी कुपथविनाशक प्रकाश पहुंचा रहा था। जिस यूनान देशमें आज जैन धर्मका नामोनिशान भी शेष नहीं, किसी समय उस यूनान देशमें जैन ऋषिवरोंने जैन धर्मका अच्छा प्रचार किया था । जैन धर्मका वह मध्यान्ह समय बीत चुका अब वह जैनधर्मकी गरिमापूर्ण महिमा केवल सत्यान्वेषी विद्वानोंके निर्माण किये हुए ऐतिहासिक ग्रंथों में ही नेत्रगोचर हो सकती है ।
जैन धर्मका आधुनिक मंद प्रकाश उसके सायंकालीन प्रकाशको प्रकाशित कर रहा है। इस समय उस दिवाकरमें इतना भी प्रताप नहीं दीख पडता कि वह अपने जैन मंडलको भी पूर्ण तौर से अपने प्रकाशका परिचय दे सके । जैनधर्मके इस शोचनीय प्रसंगके यद्यपि अनेक निमित्त पिछले समय में सफलता पा चुके हैं । किन्तु अधःपतनका प्रधान एवं प्रथम कारण यह हुआ कि आजसे लगभग २१००—२२०० वर्ष पहले संगठित जैन समुदायमें द्वादशवर्षीय दुष्कालका निमित्त पाकर दिगम्बर तथा श्वेतांबर रूप दो विभाग हो गये । कोई भी संगठित संघ जब पारस्परिक विशेष लेकर दो विभागों में उठ खड़ा होता है उस समय उस संघकी गरिमा, महिमा, बिस्तार, प्रचार प्रभाव, प्रकाश, कीर्ति आदि गुण सदा के लिये कितने फीके पड़ जाते हैं इसको सब कोई समझता है । तदनुसार जैन समुदायकी क्रमशः हीन अवस्था होते हुए यह अवनत दशा हो गई है कि जो अपने पहले समय में संसार के कल्ह, विवाद, झगडों को शान्त करने के लिये न्यायाधीश का काम करता था, विश्वको शांतिप्रदान करता था जैन संघ आज पारस्परिक अशांतिका गणनीय क्षेत्र बना हुआ है अपने धार्मिक अधिकारोंका निर्णय करानेके लिये दूसरोंके द्वार खटखटाता फिरता है ।
वह
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com