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द्रव्य पुरुषवेद से ही मुक्ति होती है। संसारका ना और मुक्तिकी प्राप्ति मनुष्यगतिसे ही होती है यह निर्विवाद सिद्ध है। क्योंकि नरकगतिमें रोने, मारने पीटने आदि दु:खोंमें जीवन व्यतीत होता है । देवगतिमें विषयभोगसे विराग ही नहीं होने पाता । और पशुगतिमें ज्ञानकी कमी से ध्यान, संयम, रत्नत्रय आदि सामग्री नहीं मिल पाती । मनुष्यगतिमें सब प्रकारकी सामग्री मिल जाती है इस कारण मनुष्यगति से स्वर्ग, नरक, तिथेच, मुक्ति आदि सभी गतियां प्राप्त हो जाती हैं । किन्तु मनुष्यगति पाकर भी नपुंसकोंको शक्तिके अभाव से तथा प्रबल कामवेदना से वीतराग भाव नहीं हो पाते । इसीलिये उनको मुनि · दीक्षा ग्रहण करनेका भी अधिकार नहीं है होती है। स्त्रियोंको मोक्ष प्राप्त करने योग्य सिद्ध कर ही चुके हैं
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अतः उनको मोक्ष नहीं साधनों का अभाव है यह
अतः शेष पुरुष रहे उनको ही सब प्रकार के साधन प्राप्त हैं । बज्रऋषभाराच संहनन, वस्त्ररहित नग्न वेश, कठिन से कठिन परीषह सहन करने योग्य अनुग्म धैर्य, उच्च कोटिका ज्ञान, महाव्रत आदि कर्मनाश करने के समस्त कारण मनुष्योंको मिल जाते हैं । इस कारण योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मिल जाने पर जो मनुष्य मुनित्रत धारण कर ध्यान करता है वह भव्य पुरुष कर्मनाश करके मुक्ति को प्राप्त कर लेता हैं ।
श्वेताम्बर मुनि आत्मारामजीने जो तत्वनिर्णयप्रासाद के ६१८ पृष्ट र निम्नलिखित त्रिलोकसारकी गाथा लिखकर दिगम्बरीय शास्त्रों से स्त्रीमुक्ति सिद्ध करनी चाही है पर उनकी हास्यजनक मोटी भूल है क्योंकि उसमें स्त्रीशरीरधारी जीव को मुक्ति नहीं बतलाई है किन्तु द्रव्य पुरुषवेदीको ही ९ वे गुणस्थानके पहले भावकी अपेक्षा स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद बतलाये हैं । वह गाथा यह है
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वीस नपुंसयवेया इन्थीवेया य हुंति चालीसा । पुंवेया अडवाला सिद्धा इकम्मि समयम्मि ||
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