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सी उत्कृष्ट जिनकल्पी साधुके समान वस्त्र त्याग कर नग्न हो नही सकती क्योंकि प्रथम तो वह उज्जावश ऐसा कर नहीं सकती दूसरे खेतांवरीय ग्रंथकारोंने भी स्त्रीको नम रहनेका निषेध किया है। उन्होंने स्पर लिखा है कि
"णो कप्पदि लिंग थीए अचेलाए होताए ।" यानी-स्त्रीको अचेल (नम-वनरहित ) रहना योग्य नहीं है )
वस्त्र रखने से साधुको कितनी आपत्तियों का सामना करना पड़ता है इसका चित्र भी शुभचन्द्राचार्यने अच्छा खींचा है । वे लिखते हैं,
म्लाने वालयतः कुतः कृतजलाधारंमतः संयमो, नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् । कोपीनेपि हृते परैश्च झगिति क्रोधः समुत्पद्यते, तमिन्यं शुचिगगहत्शमवतां वस्त्रं कमंडलम् ।।
अर्थात-मुनिका कपडा मैला हो जाय तो उसे धोनकी आव. श्यकता होती है और वस्त्र घोनेपर पानीका अरंभ होता है जिसे अप स्थावर जीवोंकी हिमाके कारण संथम कसे रह सकता है ? यद मुनिके वस्त्र खोजावें तो उसके मनमें व्याकुलता होती है तथा स्वयं उच्चपद धारी होकर भी साधुको नीच पदस्थ गृहस्थों से कपडे मंगने पहते हैं। यदि कोई चोर, डकू आदि दुसरा मनुष्य मुनिको कोपीन ( चोलपट्ट-लंगोटी ) भी छीन लेवे तो साधुको सट उसपर क्रोधभाव हो जायगा । इस कारण साधुके लिये ये बल हितकर नहीं हैं किन्तु पवित्र और रागभावको हटानेवाले दिशासपी बस्त्र यानी नम रहना ही ठीक है ।
वन रखनेके विषयमें यदि थोडा भी विचार किया जावे तो मालम हो जाता है कि जब तक शरीरसे राग भाव न हो तब तक शरीर ढकनेके लिये कपडे पहने ही क्यों जावें ? । अपने निये कपडे गृहस्थोंसे मांगना' यह तब ही बन सकता है जब कि कपोंसे थोडा बहुत रागभाव होवे। साधु या मार्यिका मपने पास वन रक्खे तो उसे उनकी रक्षाके लिये भी सावधान
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