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. स्त्रियोंमें ज्ञानशक्ति अल्प होती है.
कर्मजालको नष्ट करके मुक्तिपद पाने के लिये पर्याप्त ज्ञानकी परम आवश्यकता है । जिसमें ज्ञानशक्ति विद्यमान नहीं अथवा पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करनेकी योग्यता नहीं वह शुक्ल ध्यान करके मुक्ति भी कैसे पा सकता है। शुक्ल ध्यान करनेके लिये द्वादश अंगोंका ज्ञान हासिल करनेकी योग्यता होनी आवश्यक है। तदनुसार बारह अंगों का ज्ञ न पुरुषों को तो प्राप्त हो जाता है इस कारण पुरुषमें तो श्रुतकेवली होनेकी तथा उस श्रुत ज्ञानके निमित्तसे शुक्ल ध्यान प्राप्त करनेकी योग्यता है किन्तु स्त्रीमें पूर्ण श्रुत ज्ञान धारण करनेकी योग्यता नहीं है । जब उसको बारह अंगोंवाले श्रुत ज्ञानको धारण कर श्रुत केवली बनका ध्यान करने की योग्यता नहीं तो मानना पडेगा कि उसको शुक्लध्यान भी नहीं हो सकता और न केवलज्ञान हो सकता है।
जो बकरी घोडेके उठाने योग्य भार उठाने के लिये भी असमर्थ है वह मला हाथीका भार कैसे उठा सकती है । इसी प्रकार स्त्रियोंको 'जब पूर्ण श्रुतज्ञान धारण करनेकी योग्यता नहीं तो वे सकल प्रत्यक्ष, पूर्ण निरावरण, लोक अलोक प्रकाशक केवलज्ञानको किस तरह प्राप्त कर सकती हैं ?
स्त्रियोंको १२ गोंका ज्ञान तो एक ओर रहा किंतु दृष्टिवाद अंगके एक भाग रूप चौदह पूर्वो का भी पूर्ण ज्ञान नहीं होता ऐसा श्वेतांबरीय ग्रंथ भी स्पष्ट बतलाते हैं । देखिये प्रकरणरत्नाकर ( चौथा भाग ) के कर्मग्रंथ नामक प्रकरणमें “ जोगोवओग लेस्सा " इत्यादि ५५ वी गाथाकी टीका ५९१ वें पृष्ठपर लिखा है कि- " तथा प्रमत्त साधुने आहारक तथा आहारक मिश्र ए बे योगें वर्ततां स्त्रीवेदनो उदय न होय, जे भणी आहारकमिश्र योग चौदं पूर्वधर पुरुषनेज होय स्त्रीने तो चौद पूर्व- भणवू निषेध्यु छ जे भणी सूत्रे कथुछ के
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