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नेके कारण मृत्यु ही हो सकती है; एवं न उन्हें कोई किसी प्रकार की व्याकुलता ही उत्पन्न हो सकती है। क्योंकि वे ज्ञानावरण मोहनीय और अंतराय कर्मोंer बिलकुल क्षय करके अविनाशी, अनंतज्ञान, सुख और वह प्राप्त कर चुके हैं । इस कारण केवल को कालाहार (ग्रासवाला भोजन ) करना सर्वथा निष्प्रयोजन है ।
वेदनीय कर्म विद्यमान रहता हुआ भी मोहनीय कर्मकी सहायत, न रहने से केवली भगवान्को कुछ फल नहीं दे सकता । तथा - वेदनीय कर्म में स्थिति, अनुभाग ( फल देनेकी शक्ति ) कषायके निमित्तसे पडते हैं सो केवली भगवान्के कषाय बिलकुल न रहने से वेदनीय कर्म में बिलकुल स्थिति नहीं पडती है। पहले समय में आकर उसी समय में कर्म झड जाता है । वह एक समय भी आत्मा के साथ नहीं रहने पाता । दूसरे - उसमें अनुभाग शक्ति जरा भी नहीं होती इस कारण भष्म किये हुए ( प्रयोगद्वारा मारे हुए ) संखिया के समान वह कर्म अपना कुछ भी फल नहीं दे सकता ! इसलिये वेदनीय कर्मका उदय कर्मसिद्धान्त के अनुसार क्षुधा, तृषा भादि परिषहोंको उत्पन्न नहीं कर सकता । श्वेतबरीय ग्रथकार रूयं केवलाके अक्षय, अतीन्द्रिय, अनुपम, अनन्त, अप्रतिहत, स्वाधीन सुख मानते हैं। फिर भला वे ही बतलावें कि ऐसा सुख रहते हुए भी उन्हें क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण बादि परिषहें किस प्रकार कष्ट दे सकती हैं
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इसके सिवाय एक च त यह भी है कि अपने पक्षमें मटरू दूषण आते भी देखकर हमारे श्वेताम्बरी भाई केवली भगवान के वेदनीय कर्मक उदयसे ११ ग्यारह परिषका होना हठकर बतलावें तो उन्हें इस बातका मी उत्तर देना होगा कि मिटानेके लिये तो आपने सदोष कवलाहार करने की कल्पना कर ली किन्तु शेष ९ पराषहोंका कष्ट केवली भगवान् के ऊपर से टालनेके लिये क्या प्रबन्ध कर छोडा है ।
क्षुधा तृषा परिषह
क्या केवली भगवान्को शीत उष्ण परीषह से शर्दी गर्मीका कष्ट होता रहता है, उसको हटाने का कोई उपाय नहीं ? क्या उन्हें दंशमशक
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