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श्री भद्रबाहुस्वामी और सम्राट
चन्द्रगुप्तके विषयमें
इतिहास सामग्री। प्रिय पाठक महानुभावो ! यद्यपि श्रवणबेलगुलके प्रथम शिला. लेखसे यह स्पष्ट हो गया है कि " अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामीको उज्जयिनी [ मालवा ] में बारह वर्षके दुष्कालकी भीषणता निमित्त ज्ञान से मालूम हुई थी और उससे मुनिचारित्रको निष्कलंक रखनेके लिये वे अपने संघसहित जिसमें कि नवर्दीक्षित परमगुरुभक्त मुनि प्रभाचन्द्र पूर्वनाम सम्राट चन्द्रगुप्त भी थे, दक्षिण देशको गये थे । वहांपर अपना मृत्युसमय निकट जानकर कटवन पर्वतपर जिसको कि आजकल चन्द्रगिरि भी कहते हैं अपनी सेवाके लिये चन्द्रगुप्तको अपने पास रखकर श्री भद्रबाहु स्वामीने सन्यासमरण किया था।" किंतु कुछ महाशय इस बातकी सत्यतामें सन्देह करते हैं । उनके विचारमें अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी और सम्राट् चन्द्रगुप्तका समय एक नहीं बैठता । इतिहास की आड लेकर वे दोनोंका समय भिन्न भिन्न ठहराते हैं।
हम उनके इस सन्देहको यहाँपर दूर कर देना भावश्यक समझते हैं । इस विषयमें जो महाशय शंकितचित्त हैं उनको पहले श्रवणबेलगुल ( चन्द्रगिरी ) के अन्य शिलालेखोंका अवलोकन कर लेना चाहिये । ऐसा करनेसे उनका सन्देह बिलकुल दूर होजायगा । देखिये
शिलालेख नं. २ ___ नागराक्षरमें प्रतिलिपि. श्री भद्रबाहु सचन्द्रगुप्त मुनीन्द्र युग्मादी नोप्पोवल भद्रभाग इदाधर्म अन्दुवलि केवंद इनिपलकुलो.......विद्रुमधरे शान्तिसेन मुनीशनाकि सचेलगो....... रामाद्रिमेल भशनादि विटु पुनर्भवकिरगी । ___यानी-शान्तिसेनकी पत्नी यह कहती हुई पहाडपर चली गई कि श्री भद्रबाहु तथा महामुनि चन्द्रगुप्तके अनुकूल चलना ही परम सद्धर्म है । बल्कि वह भोजनादि छोडकर भनेक परीषहोंको सहन कर अमर पद प्राप्त हुई।
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