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ओंने लाठी रखना छोड दिया है । साथ ही जिन मंदिर, जिन प्रतिमा पूजनकी भी प्रवृत्ति छोड दी है ।
भद्रबाहु स्वामी तथा चन्द्रगुप्त राजाके समय बारह बर्षका दुर्भिक्ष मालवदेशमें पड़ा था और उस समय वे अपने मुनिसंघसहित दक्षिण देशमें गये थे, इसकी साक्षी श्रवणवेलगुलके एक शिलालेखसे मिलती है। यह शिलालेख श्रवणबेलगुलमें चन्द्रगिरि पर्वतके ऊपर चन्द्रगुप्तवस्ती के मंदिरके सामने एक १५ फीट ७ इंच ऊंचे तथा ४ फीट ७ इंच चौडे शिलाखंडपर पुरानी कनडी लिपिमें खुदा हुमा है । इस शिलालेखको वीर सं. २६६ ( विक्रम संवत् से २०३ वर्ष पहले ) सम्राट चन्द्रगुप्तके पौत्र सिंहसेन द्वितीयनाम विन्दुसारके पुत्र महाराज भास्कर अपरनाम
अशोकने ( बौद्ध धर्म ग्रहण करनेके पूर्व ३० वर्षकी आयुसे प्रथम ) उस 'समय लिखवाया था जब कि वह अपने पितामह मुनि प्रभाचन्द्र [पूर्व नाम चन्द्रगुप्त ] के दीर्घकालीन निवाससे तथा भद्रबाहु स्वामीके संन्यास मरण करनेसे पवित्र इस पर्वत प्रदेश पर आया था । वहां उसने अपने पितामह चन्द्रगुप्तके नामसे मंदिर बनवाये जो कि अभीतक 'चन्द्रगुप्त वस्ती के नामसे प्रसिद्ध हैं: तथा श्रवणबेलगुल नगर बसाया । सम्राट अशोक अपने राज्याभिषेकसे १३ वें वर्ष तक जैनधर्मानुयायी रहा था तत्पश्चात् उसने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। अत एव बिक्रम संवत्से १९३ वर्ष पहले तकके अनेक शिलालेख अशोकके लिखवाये हुए जैन धर्म संबंधी प्राप्त होते हैं।
वह श्रवणबेलगुलका शिलालेख इस प्रकार हैजितं भगवता श्रीमद्धमतीर्थविधायिना । वर्द्धमानेन सम्प्राप्तसिद्धिसौख्यामृतात्मना ॥ १ ॥ लोकालोकद्वयाधारवस्तु स्थास्नु चरिष्णु च। सचिदालोकशक्तिः स्वा व्यश्नुते यस्य केवला ॥ २ ॥ जगत्यचिन्त्यमाहात्म्यपूजातिशयमीयुषः । तीर्थकुनामपुण्यौघमहार्हन्त्यमुपेयुषः ॥३॥ तदनु श्रीविशालेयञ्जयत्यय जगद्धितम् ।
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