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सहित होता है ।.......पहिला भेद जो पाणिपात्र और वस्त्ररहित कहा है सो ही आठ विकल्पों मेंसे प्रथम ( उत्कृष्ट ) विकल्प वाला जानना ।"
"जब आचार्योने जिनकल्पका ऐसा स्वरूप कयन करा तब शिव. भूतिने पूछा कि किसवास्ते आप अब इतनी उपाधि रखते हो ? जिनकल्प क्यों नहीं धारण करते हो? तब गुरुने कहा कि इस कालमें जिनकल्पकी सामाचारी नहीं कर सकते हैं क्योंकि जंबूस्वामीके मुक्ति गमन पीछे जिनकल्प व्यवच्छेद हो गया है । तब शिवभूति कहने लगा कि जिनकल्प व्यवच्छेद हो गया क्यों कहते हो ? मैं करके दिखाता हूं। जिनकल्प ही परलोकार्थीको करना चाहिये । तीर्थकर भी अचेल (नग्न) थे इस वास्ते अचेलता ही अच्छी है । तब गुरुओंने कहा देहके सद्भाव हुए भी कषाय मूर्छादि किसीको होते हैं तिस वास्ते देह भी तेरेको त्यागने योग्य है । और अपरिग्रहपणा मुनिको सूत्रमें कहा है सो धर्मोपकरणों में भी मूर्छा न करनी । और तीर्थकर भी एकांत अचेल नहीं थे क्योंकि कहा है कि सर्व तीर्थकर एक देवदूष्य वस्त्र लेके संसारमें निकले हैं यह आगमका वचन है । ऐसे गुरुओंने तिसको समझाया भी तो भी कर्मोदय करके वस्त्र छोडके नग्न होके जाता रहा । ..............तिस शिवभूतिने दो चेले करे कौडिन्य १ कोष्टवीर २। इन दोनोंकी शिष्यपरंपरासे कालांतर में मतकी वृद्धि हो गई । ऐसे दिगम्बर मत उत्पन्न हुआ।"
दिगम्बर संघकी उत्पत्तिकी यह कथा इसी रूपसे अन्य श्वेतांबर ग्रंथोंने भी लिखी है।
विचारशील सज्जन यदि विचार करें तो यह कस्मित कथा उलटी श्वेतांबर ग्रंथोंके अभिप्रायमें बाधा खडी करती है क्योंकि साधारण मनुष्य भी इसको पढकर यह समझ सकता है कि दिगम्बर सम्प्रदाय लाखों करोडों वर्ष पहलेसे ही नहीं किन्तु जैनधर्मके आदिप्रवर्तक भगवान श्री ऋषभदेवके समय से ही विद्यमान था । वीर निर्वाण संवत् ६०९ के पीछे ही नवीन उत्पन्न नहीं हुआ। क्योंकि महाव्रतधारी साधु भगवान ऋषभदेवके समयसे ही होने लगे थे । महा
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