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यहांपर दो बातें सिद्धान्तविरुद्ध हैं एक तो यह कि संगमक देव पर लात घूसों लकडी आदिकी भारी मार पड़ी । क्योंकि देवोंमें न कभी परस्पर लडाई होती है और न कभी किसी देवपर मार ही पडती है । ऐसा जैन सिद्धांत है ।
दूसरे-उस संगमक देवको स्वर्गसे बाहर निकाल दिया यह बात भी सिद्धान्तविरुद्ध है क्योंकि देवोंको अपने स्वर्गस्थानसे मायु पूर्ण होने के पहले किसी प्रकार कोई नहीं निकाल सकता । स्वर्गसे बाहर विहार करनेके लिये वे अपनी इच्छा के अनुसार भले ही जावें। किसी के निकालनेसे वे नहीं निकल सकते।
तीसरे-इन्द्रमें यदि उस देवको दंडित करनकी शक्तिही थी तो वह उसको महावीर स्वामीपर उपसर्ग करते हुए तथा ६ मास तक भोजनमें अन्तराय करते समय भी रोक सकता था । ऐसा करनेसे उसके दोनों कार्य वन जाते ।
महाव्रती साधु क्या रात्रिभोजन करे ? जैनधर्ममें अहिंसा व्रतको सुरक्षित रखने के लिये अन्य बातोंके सिवाय रात्रिभोजन भो त्याज्य बतलाया है । तदनुसार अणुव्रती श्रावकको भी सूर्य अस्त हो जाने पर भोजन करनेका निषेध जैन ग्रंथों में किया गया है । महाव्रती साधुके लिये तो यह रात्रिभोजनत्याग व्रत सर्वथा ही पालनीय है । इस बातको श्वेताम्बरीय ग्रंथ भी स्वीकार करते हैं । तदनुसार अनेक गृहस्थ श्वेताम्बरी भाई भारी विपत्ति आ जानेपर भी रातको पानी तक नहीं पीते हैं।
किन्तु दुःख है कि श्वेताम्बरीय प्रसिद्ध ग्रंथ वृहत्कल्पकी टीकामें महाव्रती साधुको रात्रिभोजनका भी विधान कर दिया है जैता कि सम्यक्त्वशल्योद्धारके १४९ वें पृष्ठ १० वें प्रश्नोत्तरमें आत्मानंदजीकी लेखनीसे लिखा हुआ है।
" श्री दशवैकालिक सूत्रमें साधुके लिये रात्रिभोजन करना कहा है ! उत्तर-वृहत्कल्पके मूल पाठमें भी यही बात है परन्तु तिसकी अपेक्षा गुरुगममें रही हुई है।"
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