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नाटक अपना तथा दर्शकों का चित्त प्रसन्न करनेके लिये सरागी पुरुष खेलते हैं। केवलज्ञानी नाटक खेलें यह श्वेताम्बरीय ग्रंथों के सिवाय अन्यत्र नहीं मिल सकता ।
सारांश-यह है कि यदि कपिलने वास्तवमें चोरोंको उपदेश देनेके लिये नाटक किया था तो वह केवलज्ञानी तो दृरकी बात रही किंतु छठे गुणस्थानके साधु भी नहीं थे क्योंकि नाटक खेलना महाव्रतधारी साधुकी चर्याके भी विपरीत है। और सभ्य गृहस्थों के भी विरुद्ध है । यदि कपिल वास्तवमें केवलज्ञानी अईत था तो उसने नाटक नहीं खेला। अतएव नाटक खेलनेकी कथाका उल्लेख असत्य अप्रामाणिक है ऐसा मानना पडेगा ।
देवपर मार और स्वर्गसे निर्वासन. तत्वार्थाधिगम सूत्रके चौथे अध्यायके प्रथम सूत्र " देवाश्चतुर्निकायाः " की सिद्धसेनगणिप्रणीत टीकामें लिखा है
दीन्यन्तीति देवाः स्वच्छन्दचारित्वात् अनवरतक्रीडासक्तचेतसः क्षुरिपपासादिभिर्ना त्यन्तमाघाता इति भावार्थः ।
यानी-जो स्वच्छन्दरूपसे (स्वतंत्रतासे ) निरन्तर ( सदा ) क्रीडा भोग विलासों में आसक्त रहते हैं, तथा भूख, प्यास आदिसे बहुत नहीं सताये जाते हैं ऐसे देव होते हैं।
किन्तु संगम देवके विषयमें कल्प मूत्रमें लिखा है कि--
एकबार सौधर्म स्वर्गमें इन्द्रने महावीर भगवान के अटल तपश्चरण की प्रशंसा की । उस प्रशंसाको सुनकर एक संगम देवने प्रतिज्ञा की कि मैं महावीर स्वामीको ध्यान तथा तपस्यासे भ्रष्ट करूंगा । तदनंतर उसने आत्मभ्यानमें लगे हुए महावीर स्वामीके ऊपर अनेक प्रकारके घोर उपद्रव किये । किन्तु उन उपद्रवोंसे महावीर भगवान रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। उसके पीछे उस देवने ६ मास तक उनके भोजन में अन्तराय किया जिससे उन्होंने ६ मास तक आहार ग्रहण नहीं किया । तदनन्तर भगवानको तपश्चरणसे चिगानेके लिये अपने आपको
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