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। २०७ ) किन्तु फिर भी श्वेताम्बरीय ग्रंथों में भोगभूमिवाले मनुष्यों के अकालमरणका उल्लेख पाया जाता है ऐसे उल्लखको सिद्धान्तविरुद्धही कहना चाहिये।
कल्पसूत्रके सप्तम व्याख्यानमें भगवान ऋषभनाथका चरित वर्णन करते हुए भगवानकी पत्नी सुनंदाके विषयमें वह ग्रंथकार लिखता है कि
"कोइक युगली आंने तेमनां मातापिताए तालवृक्षनी नीचे मुक्यु हतुं ते तालवृक्षनु फल नीचे पडवाथी पुरुष मत्यु पाग्यो । अने एवी रीते पेहेलजु अकालमृत्यु थयु ।" ___अर्थात्-किसी एक युगलियाको [ स्त्री पुरुषको ] उनके मातापिताने तालवृक्षके नीचे छोड दिया था। उस समय तलवृक्षका फल शिरपर गिरनेसे पुरुषका मरण हो गया । इस प्रकार यह पहलीही अकाल मृत्यु हुई है।
इस अकाल रणसे मरे हुए पुरुषकी स्त्री के साथही भगवान् ऋषभनाथका विवाह किया गया, नाम सुनंदा स्वखा गया । इस प्रकार यदि उस समयकी अपेक्षासे इस बात का विचार करें तो अकाल मृत्युसे मरे हुए उस भोगभूमियाको वह स्त्री बच गई । और उस स्त्री के साथ भावान ऋषभदेवने विवाह किया ।
यह भोगभूमिया मनुष्यकी अकाल मृ यु बतराना सिद्धान्त विरुद्ध है क्योंकि स्वयं श्वेतांवरीय सिद्धान्तशास्त्र ही भोगभूमिया मनुष्य तिर्यचकी अकालमृत्युका निषेध करते हैं। आचार्य उमास्वामि विरचित तत्वार्थाधिगमसूत्रके दूसरे अध्यायके ५२ वे सूत्रमें बतलाया है -
औपपातिकचरमदेहोत्तमपुम्यासंख्येयवर्वायुषो ऽनपवायुषः ।
अर्थात्-औपपा दिक, । देव, नारकी ] उत्तम चस्मशरीरी (त्रेसठ शलाका पुरुष ) और असंख्यात वर्षों की आयुवाले (भोगभूमिया) मनुष्य तिर्यचोंकी अकालमन्यु नहीं होती है ।
इसी सूत्रकी सिद्धसेनगणिप्रणीत संस्कृत टीकामें " असंख्येयवर्षायुषः" का खुलासा २२३ वें पृष्ठपर यों किया है ।
___ " कर्मभूमिप च ये मनुष्याः प्रथम द्वितीयततीयसमासु यदा
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