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श्वेताम्बरीय ग्रंथ प्रकरणरत्नाकर चतुर्थ भागके षडशीतिनामक चौथे खंडकी ६४ वीं गाथा ४०२ पृष्ठपर लिखी है कि - '
उहरंति पमत्तता साह मीसह वेअ आड विणा । छग अपमत्ताइ तऊ छ पंच सुदुमो पणु वसंतो। ६४ ।
अर्थात्- मिश्र गुणस्थान के सिवाय पहले से छठे गुणस्थान तक बाठों कर्मोकी उदीरणा है । उसके आगे अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीन गुणस्थानोंमें वेदनीय और आयुर के विना ६ कर्मोंकी उदीरणा होती है । दश तथा ग्यारहवें गुणस्थानमें मोहनीय, वेदनीय, आयुके विना शेष पांच कर्मोंकी उदीरणा होती है ।
आगेकी ६५ वीं गाथा इसी पृष्ठ र यों है" पण दो खीण दुजोगीऽणुदीगु अजोगिथोच उवसंता ।
यानी बारहवें गुणस्थानमें अंत समयसे पहले ग्यारहवें गुणस्थानकी तरह पांच कर्मों की उदीरणा होती है। अंतसमयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय मोहनीय, वेदनीय, आयु इन ६ कर्मोंके सिवाय शेष नाम, गोत्र इन दो कर्मोकी ही उदीरणा होती है। सयोग केबली १३ वें गुणस्थानमें भी नाम, गोत्र कर्मकी ही उदीरणा होती है। १४ वें गुणस्थानमें उदीरणा नहीं होती है ।
___इस प्रकार जब कि वेदनीय कमकी उदीरणा छटवें गुणस्थान तक ही होती है तो नियमानुसार यह भी मानना पडेगा कि भूख भी छठे गुणस्थान तक ही लगती है । उसके आगे के गुणस्थानोंमें न तो उदीरणाा है और न इस कारण उनमें भूख ही लगती है। ____ तदनुसार जब कि तेरहवें गुण थानवर्ती अर्हन्त भगवान्को वेदनीय कर्मकी उदीरणा न होने से भूख ही नहीं लाती फिर उस भूखको मिटानेके लिये वे भोजन ही क्यों करेंगे? यानी नहीं करेंगे; क्योंकि कवलाहार ( भोजन ) भूख मिटानेके लिये ही भूख लगनेपर ही किया जाता है । अन्यथा नहीं।
इस कारण कर्मग्रंथों के सिद्धान्त अनुसार तो केवली भगवान के
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