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परीक्षामुखके ११ वें १२ वें सूत्र " को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत्, प्रदीपवत् " हैं और प्रमाणनयतत्वालंकारमें एक १७ वां सूत्र उसकी नकलका कः खलु ज्ञानस्यावलंबन बाझं प्रतिभातमभिमन्यमानस्तदपि तत्प्रकारं नाभिमन्येत मिहिरालोकवत् " है ।
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परीक्षामुखका अन्तिम सूत्र " तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च " है 1 प्रमाणनयतत्वालंकार में अंतिम सूत्र तदुभयमुत्पतौ परत एव शप्तौ तु स्वतः परतश्चेति " है । इस सूत्र के निर्माण में वादिदेव सूरिने प्रमेयकमल मार्तण्डका विषय भी उधार ले लिया है ।
इस प्रकार प्रमाणनयतत्वालोकालंकारका प्रथम परिच्छेद परीक्षामुखके प्रथम परिच्छेदसे बिलकुल मिलता जुलता है, केवल शब्दोंका थोडासा अन्तर है । शेष विषयवर्णनशैली और सूत्र रचना परीक्षामुखके ही समान है।
अब दोनों ग्रंथोंके द्वितीय परिच्छेदपर दृष्टिपात कीजिये । वहाँ भी ऐसी ही बात है । परीक्षामुखने जब अपने दूसरे परिच्छेद में प्रत्यक्ष प्रमाणका स्वरूप बतलाया है तव प्रमाणनयतत्वालंकारने भी ऐसा ही किया है | देखिये –
परीक्षामुखके प्रारंभिक दो सूत्र ' तद्द्वेषा, प्रत्यक्षेतरभेदात् ' हैं जब प्रमाणनयतत्वालंकारका पहला सूत्र " तद् द्विभेदं प्रत्यक्षं च परोक्षं च " है । इनमें कुछ भी अन्तर नहीं ।
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परीक्षामुखमें तीसरा सूत्र विशदं प्रत्यक्षम् " विद्यगान है । प्रमाणनयतत्वालंकारमें उसकी समानतापर " स्पष्ट प्रत्यक्षम् " सूत्र कर दिया है । अर्थ दोनोंका ठीक एक ही है ।
परीक्षामुखका चौथा सूत्र “ प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम्" है । वादिदेव सूरिने इसके स्थानपर “ अनुमानाद्याधिक्येन विशेषनकाशनं स्पष्टत्वम् " सूत्र बना दिया हैं |
परीक्षामुखकारने पांचवां सूत्र " इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् " लिखा है, तब वादिदेवसूरिने भी "तत्राद्यं द्विविधमिन्द्रियनिबन्धनमनिन्द्रियनिबन्धनं च " यह पांचवां सुत्र बनाया है ।
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