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ऐतिहासिक प्रमाणोंसे प्रसिद्ध है । इस कारण सिद्ध हुआ कि दिगम्बरीय कर्मग्रंथ श्वेताम्बरीय कर्मग्रंथों से पहले बन चुके थे। ____अब हम न्यायविषयक ग्रंथोंपर भी प्रकाश डालते हैं कि न्याय ग्रंथों के निर्माणमें किस सम्प्रदायने किस संप्रदायकी नकल की है ।
जैनन्यायग्रोंके आदि विधाता.. श्री कुन्दकुन्दाचार्यके पीछे श्री उमास्वामी आचार्य प्रख्यात जैन साधु हुए। उनके पीछे विक्रम संवत् दूसरी शताब्दी के प्रथम भागमें स्वामी 'समन्तभद्राचार्य ' नामक असाधारण विद्वत्ता और वाग्मिताके स्वामी दिगम्बर जैन आचार्य हुए। ये बालब्रह्मचारी तथा एक क्षत्रिय नरेशके पुत्र थे। सरस्वती इनकी रसनापर नृत्य करती थी । इन्होंने कांची ( कर्नाटक ) से लेकर पूर्वीय भारतके ढाका [ बंगाल ] नगर तक दिग्विजय की थी। उस जमानेमें जिस किसी भी नगरमें दिग्गज विद्वानोंका समुदाय होता था उसी नगरमें जाकर समन्तभद्राचार्य वादभेरीको बजा देते थे और वहांके विद्वानोंसे शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित कर देते थे और जैनधर्मका तथा उसके म्याद्वाद सिद्धांतका असाधारण प्रभाव जनतापर डालते थे।
__ कांचीपुर, मंदसौर ( मालवा ), बनारस, पटना, सिन्धदेश, ढाका आदि नगरोंमें पहुंचकर समन्तभद्राचायने बडे बडे शास्त्रार्थीमें विजय प्राप्त की थी यह बाल अनेक ऐतिहासिक प्रमाण प्रमाणित कर रहे हैं।
काशी में अनुपम शिवभक्त राजा शिवको टने अपने राजमदमें आकर समन्तभद्राचार्यसे दुगग्रह किया था कि आप हमारे पूज्य शिवलिंगको नमस्कार को जिये । समन्तभद्राचार्यने कहा कि राजन मेरे नमस्कारको केवल अहत प्रतिमा सहन कर सकती है। तुह्मारा शिवलिंग मेरे नमस्कारको न सह सकेगा। किन्तु राजहठसे वशीभूत शिवकोटि राजाने न माना और शिव लङ्गको नमस्कार करनेका दुराग्रह किया । तब समन्तभद्राचार्यने स्वरम्भूम्तोत्र बनाकर चौवीस तीर्थंकरोंका स्तवन किया । उस समय सात तीर्थ करोंका स्तोत्र पढ लेने पर जब उन्होंने आठवें तीर्थकर श्री चन्द्रप्रभ का स्तोत्र प्रारम्भ किया तब दूसरा श्लोक
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