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स्थानकवासी संप्रदाय में आन तक सैकड़ों अच्छे विद्वान साधु हुए हैं किन्तु उनमें से किसीने भी इन वाक्योंका न तो परिशोध किया न after at किया और न ऐसे ग्रंथों को अप्रामाणिक ही बतलाया । पवित्र जैन ग्रंथसमुदाय से कलंक मिटानेके लिये यह भी नहीं लिखा कि शायद ऐसे सूत्र किसी मांसभक्षीने मिला दिये हैं मुनि आत्मारामजीने मांसविधान आदि को लेकर वेदोंकी निंदा तो बहुत की है और मांसभक्षण में अगणित दोष बतलाये हैं किंतु उन्होंने अपने इन मांस विधायक ग्रंथोंकी निंदा जरा भी नहीं की है । कहनेको वे इन्हें अनेक बार देख गये होंगे।
संभव है ऐसे ही कारणोंसे सूत्र ग्रंथोंको देखने पढनेका गृहस्थोंको श्वेतांबरीय आचार्योने अधिकार नहीं दिया हो ।
यद्यपि हमारी समझसे श्वेतांबरीय तथा स्थानकवासी साधु आचारंगसूत्रके लिखे अनुसार मांस, मधु आदि अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण नहीं करते हैं । किंतु यदि कोई साधु मांस खा लेवे तो आचारांगसूत्रके लिखे अनुसार वह अपराधी नहीं होगा !
तथा - एक कौतूहलकी बात यह है कि बेचारे व्रती ही नहीं किंतु अती भी गृहस्थ श्रावक तो मांस भक्षण न करें क्योंकि गुरूजी महाराजने निषेध कर रक्खा है और महाव्रती गुरू महाराज आप खा जावें । क्या यहां यह कहावत चरितार्थ नहीं होती कि समरथ को नहीं दोष गुसाई
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आश्चर्य इस बात का भी है कि प्रतिवर्ष कल्पसूत्रको भारंभसे अंततक सुननेवाले श्रावकोंने भी ऐसे मांसभक्षण विधानको कभी नहीं पकडा | इसका कारण ऐसा भी सुना है कि श्रावकोंको सूत्र ग्रंथ सुनने की आज्ञा है शंका करनेकी उनको आज्ञा नहीं है क्योंकि साधु जी कह देते हैं शास्त्रों में जो शंका करे वह अनंतसंसारी है ।
कुछ भी हो श्वेताम्बरीय ग्रंथों में इस प्रकार मांसविधान होने के कारण जैनधर्म पर नहीं तो श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के मस्तक पर अवश्य ही कलंकका टीका लगता है । इसका प्रतिशोध हो जाना आवश्यक है ।
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