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इस विषयमें निम्नलिखित दोष दीख पडते हैं
१- महाव्रतधारी साधु दिनमें कितनी बार भोजन न करें यह नियम नहीं मालूम हो सकता । गडबड गुटालेमें बात रह गई।
२-दिनमें दो तीन आदि अनेक बार आहार करने से साधु गृहस्थ पुरुषों के समान ठहरे । अनशन, ऊनोदर तप उनके बिलकुल न ठहरे।
३-अनेक वार आहार करनेसे किये हुए उपवासोंका करना कुछ सफल नहीं मालूम पड़ा क्योकि उपवास करनेसे भोजन लालसा घटनेके वजाय अधिक हो गई। __४-आचार्य, उपाध्याय सरीखे उच्च पदस्थ मुनि स्वयं दो बार आहार करें और अन्य साधुओंको दो बार आहार करनेमें दोष बतलावें यह स्पष्ट अन्याय है क्योंकि अधिक निर्दोष तप करनेवाला मुनि ही महान हो सकता है और वह ही दूसरोंको प्रायश्चित्त दे सकता है।
५-बालक साधु साध्वी किस आयुतक समझे जाय, और वे कितनी आयुतक दो बार तथा कितनी आयुके बाद वे दिनमें एक बार भोजन करना प्रारंभ करें इसका भी कुछ निर्णय नहीं हो सकता जिससे कि उनकी उचित अनुचित चर्याका निर्धारण हो सके । इत्यादि।
साधु क्या कभी मांस भक्षण भी करे ? अब हम यहां एक ऐसे विषयको सामने रखते हैं जिसके कारण जैनमुनि ही नहीं किन्तु एक साधारण जैन गृहस्थ भी पापी या अभक्ष्य भक्षक कहा जा सकता है । वह विषय है “ क्या साधु मांस भक्षण कर सकते है ?" इस विषयको प्रकाशमें लाते यद्यपि संकोच होता है क्योंकि मांस भक्षण एक जैनधर्मधारी साधारण गृहस्थ मनुष्यके लिये भी अयोग्य बात है । विना मांसत्यागके जैनधर्म धारण नहीं किया जाता है। फिर यह तो एक जनसाधुके विषयमें मांसभक्षण के विचार करनेकी बात है । किन्तु अनुचित्त बातका विधान देख कर रहा भी नहीं जाता है।
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