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इस कथनमें यह गडबड गुटाला है कि साधु साध्वी कब तक चालक समझे जाकर दो बार भोजन करते हैं। स्त्रियोंको तो डाढी मुंछ निकलती ही नहीं। वे रजस्वला होती हैं सो प्रायः १२ वर्षकी आयुमें ही रजस्वला हो जाती हैं । अब मालूम नहीं कि आर्यिका ( साध्वी ) कबतक दो बार भोजन करती रहे।
पुरुषों में भी बहुतसे ऐसे खूसट पुरुष होते हैं जिनके डाढी मूंछ निकलतीही नहीं है । नेपाली, चीनी, जापानी पुरुषों के डाढी मूंछ बहुत अवस्था पीछे निकलती है। किसी मनुष्य के जल्दी डाढी मूंछ निकल आती है। इससे यह निश्चय नहीं हो सकता कि अमुक समय तक साधु दो बार आहार करे और उसके पीछे एक बार माहार करे ।
तथा-जब कि सभीने महाव्रत धारण करके मुनिदीक्षा ली है. तब यह भेदभाव क्यों; कि कोई मुनि तो अवस्थाके कारण दो बार आहार करे और कोई एक ही वार भोजन करे ।
एवं-मुनि संघमें सबसे अधिक बडे और ज्ञानधारी होनेके कारण ही क्या आचार्य उपाध्याय दो वार आहार करें ? क्या महाव्रतधारियोंमें भी महत्वशाली पुरुष को अनेक वार आहार करने सरीखी सदोष.
तदनंतर इसी कल्पसूत्रके ११२ वें पृष्ठमें यह लिखा है
" वली एकांतरी आ उपवास करनार साधु प्रभातमां गोचरीए जइ, प्राशुक आहार करीने, तथा छाश आदि पीने, पात्रां घोह साफ करीने जो तेटलाज भोजनथी चलावे तो ठीक, नहीं तर हजु जो क्षुषा होय, तो ते बीजी बार पण भिक्षा लावी आहार करी शके । वली छट्टनां उपवासी साधुने वे बखत तथा आठमवालाने त्रण वखत पण जवू कल्पे । भने चार पांच आदिक उपवासवालाने गमे तेटती वार दिवसमां गोचरीए जवं कल्पे ।" ___अर्थात्-एकान्तर उपवास ( एक उपवास एक पारणा ) करने वाला साधु सबेरे ( प्रातःकाल ) गोचरीके लिये जाकर प्रासुक आहार
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