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संथारुत्तरपट्टो अड्डाइज्जाय आयया हच्छा । दोपि य विच्छारो हच्छो चउरंगुलो चेत्र ।। ५२१ ॥ यानी - साधुओंके सोनेका बिछौना (संस्तारक ) और उसके ऊपर विछानकी चादर दोनों ही ढाई हाथ लंबे तथा एक हाथ चार अंगुल चौडे होवें ।
प्रवचनसारोद्धार के गुजगती टीकाकारने इस बिछौना और चादर रखने का यह प्रयोजन बतलाया है कि " संस्तारके करी प्राणी तथा शरीरे जे जरेणु लागे तेनी रक्षा थाय छे; माटे तेनो अभाव होय तो शुद्धभूमि विषे शयन कन्या छत पण साधु पृथ्वी आदि प्राणीओना उपमर्दन करणारो थाय भने शरीरने ऊपर रेणु लागे । तथा उत्तरपट्ट पण क्षौमिक षट्पदादि संरक्षणार्थ एटले दाबना करेला संस्थारामांनी भ्रमरिओने घात न थवा माटे संस्तारकनी ऊपर पथराय छे । एभ न करतां कंचलमय संस्तारक कन्याथी शरीरना संघर्षणने लीधे जुं प्रमुख जीवोनी विराधना थाय । यानी -- विछौने (संस्तारक ) से जमीनपर चलने फिरनेवाले छोटे छोटे जीवोंकी रक्षा होती है और शरीरपर धूल नहीं लगने पाती है । यदि साधु शुद्ध, जीवजन्तुरहित भूमिमें शयन करे ( सोवे ) तो उसके शरीर से पृथ्वीकायिक आदि ( न मालूम आदिसे क्या लिया ) जीव कुचल जावें और जमीनकी धूल मुनिके शरीर से लग जावे । यदि उस बिछौने पर चादर न बिछाई जाय तो भोंरा आदि जीवोंकी रक्षा कैसे हो | इसलिये बिछौने ( संस्तारक ) पर आये जीवोंकी रक्षा के लिये एक चादर अवश्य चाहिये । साधु यदि चादर ऊपर न बिछावे तो कंबलके बिछौने और शरीर के रगडने से जूं खटमल आदि जीव मर जावें ।
हुए भोरे आदि
प्रवचनसारोद्धार के इस लेखको देखकर कहना पडता है कि जीव रक्षाके बहाने साधुओंके शरीरको सुख पहुंचाने के लिए बिछौना बतलाया है । क्योंकि विचार कीजिये कि जिन साधुओंने सब तरहका परिग्रह त्याग कर परिग्रहत्याग महाव्रत धारण
रखना
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