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वह
लोभ होगा ही । उसके बिना ऐसा कार्य ही क्यों होवे ? तथागृहस्थ यदि साधारण हालतका हो तो अपने गुरूके याचना भरे वाक्योंसे दबकर या संकोच करके कि इनको एक दो कपडे देनेकी क्यों मनाही ( निषेध ) करें ऐसा विचार कर दो एक कपडा दे भी दे तो उसका हृदय थोडा बहुत अवश्य दुखेगा; क्योंकि उस बेचारे के पहनने ओढने के कपडे कम हो जायेंगे ।
तीसरी प्रतिज्ञासे कपडा लेनेवाले साधुके भी ऐसी ही बात है afe यहां उसके लोभ कषायकी मात्रा और बढी चढी प्रगट होती है । क्योंकि गृहस्थ द्वारा पहने हुए कपडको साधु विना तीव्र लोभके क्यों तो मांगे ? और क्यों दीन मनुष्यके समान उसे पहने ?
चौथी प्रतिज्ञासे कपडे लेनेवाले साधुकी दीनताकी तथा लोभकी चरम सीमा ( अखीरी हद ) समझनी चाहिये क्योंकि वह अपने पहनने के लिये ऐसे बुरे कपडको गृहस्थसे मांगता है जिनको कि घर घर भीख मांगनेवाला भिखारी भी नहीं मांगे । यदि उसे वे गंदे कपडे कोई दे भी तो वह भिखारी उन्हें नहीं ले ।
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चल एक लंगोट (चोलपट्ट ) पहनने के लिये रखना ही परिग्रहत्यागी साधुके लिये कितनी वडी आफत ( जंजाल ) की वस्तु है वह निम्न लिखित कथासे मालूम हो जाता है
एक साधु किसी नगर के बाहर एक झोपडी में रहते थे। उनके पास केवल दो लंगोट ( चोलपट्टी ) थे । एक पहने रहते थे एक को धोकर सुखा देते थे । एक दिन चूहेने उनके दूसरे लंगोटको काट डाला । यह देखकर साधुजीको बहुत दुःख हुआ ।
दूसरे दिन जब उनके समीप उनके शिष्य ( चेले ) आये तो साधुजीने सारी कथा उन्हें कह सुनाई । लोगोंने साधुजीको एक नया लंगोट बनाकर दे दिया साथही झोपडीमें एक बिल्ली भी लाकर रखदी जिससे चूहा फिर न लंगोट कतर जावे ।
साधुजी के पास खाने का यथेष्ट ( काफी ) सामान न होनेके कारण वह बिल्ली भूख से व्याकुल रहने लगी। तब साधुजी के शिष्योंने बिल्ली
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