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यदि शृंगारसहित होते हैं तो आपकी समझ तथा कहना बिलकुल असत्य; क्योंकि आपके समस्त ग्रंथों में लिखा है कि अर्हन्त भगवान गग द्वेष आदि दोषोंसे रहित होते हैं तथा उनके पास कोई जरासा भी वस्त्र आभूषण नहीं होता है । हां, इतना अवश्य है कि श्वेताम्बर आचार्य आत्मारामजी कृत तत्वनिर्णय प्रासादके ५८६ वें पृष्ठकी ११ वीं पंक्तिके लिखे अनुसार केवली भगवान के एक ऐसा पतिशय प्रगट होता है जिसके प्रभावसे नम दशामें विराजमान भी अर्हन्त भगवानकी लिंग इन्द्रिय दृष्टिगोचर नहीं होती।
यदि अर्हन्त भगवान वस्त्र आभूषण रहित होते हैं तो फिर आप लोग उनकी प्रतिमाको वस्त्र आभूषण आदि शृंगारसे सुप्तज्जित करके सरागी क्यों बना दिया करते हैं ? अर्हन्तके असली स्वरूपको विगााड. का सरागी बनाकर आप देवका अवर्णवाद करते हैं । शृंगारयुक्त प्रतिमाके दर्शन करनेसे मनके भीतर शृंगारयुक्त सराग मात्र उत्पन्न होते हैं। जो कि जैनधर्मके उद्देशसे विरुद्ध है। ___ इस कारण श्वेताम्बरी अहन्त मूर्तिका शृङ्गार करके बहुत भारी अन्याय करते हैं स्वयं भूलते हैं और अन्य भोले भाइयोंको भूलमें डालते हैं। इस कारण उन्हें भईन्त मूर्तिका स्वरूप वीतराग ही रखना चाहिये ।
यहांपर हम इतना और लिख देना उचित समझते हैं कि श्वेताम्बरीय साधु भात्मारामजीने अपने तत्वनिर्णय प्रासादके ५८४ वें पृष्ठपर यह लिखा है कि " तुम्हारे मत की द्रव्य संग्रहकी वृत्तिमें ही लिखा है कि जिनप्रतिमाका उपगृहन ( आलिंगन ) जिनदास नामा श्रावकने करा । और पार्श्वनाथकी प्रतिमाको लगा हुआ रत्न माया ब्रह्मचारीने अपहरण कर चुराया।" परंतु यह बात असत्य है। आप यदि उस कथा को पढकर भालूम करते तो आपको पता लग जाता कि हमारा समझना गलत है । कथा इस प्रकार है
ताम्रलिप्त नगरमें एक जिनेन्द्रभक्त नामक सेठ रहता था। उसने अपने महलके ऊपर एक सुन्दर चैत्यालय बनवाया था। उस चैत्यालयमें बहुत सुंदर रत्नकी बनी हुई एक पार्श्वनाथ तीर्थङ्करकी प्रतिमा थी।
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