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अर्हन्त भगवानकी प्रतिमा वीतरागी हो या सरागी ?
इस अपार असार संसारके भीतर जीवोंके लिये मुख्य तौर से दोही मार्ग हैं वीतराग और सराग । इनमें से वीतराग मार्गके उपासक जैनलोग हैं और सरागी मागकी उपासना करनेवाले अन्य मतानुयायी हैं ।
जैनसमाज अपना आराध्य देव बीतराग ( रागद्वेषरहित परमात्मा) को ही मानता है और अपना सच्चा गुरु भी उसको समझता है जो कि वीतरागताका सच्चा अभ्यासी होवे । तथा प्रत्येक जैन व्यक्ति स्वयं वीतराग वननेका उद्देश रखता है । इसी कारण वीतराग देवको अपना आदर्श मानकर उसकी मूर्ति बनाकर उसकी उपासना करते हुए उसके समान वीतरागता प्राप्त करनेके लिये उद्योग करता है ।
वीतराग मार्ग के उपासक जैसे दिगम्बर जैनसंपदाय है उसी प्रकार श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय भी होना चाहिये । श्वेताम्बरी भाई भी अर्हन्त भगवानको बीतगंग कहते हैं तथा स्वयं वीतरागता प्राप्त करनेके लिये ही अन्त भगवानकी उपासना करते हैं । किन्तु आजकल उन्होंने cred raast fir fदया है। आजकल वे जिस ढंग से अपना आदर्श बनाकर उपासना करते हैं उस उपासना के ढंगमें वीतरागताका अंश न रहकर सगगताका दूषण घुस गया है ।
कुछ समय पहले की बनी हुई श्वेताम्बरीय अर्हन्त भगवानकी प्रतिमाएं बीतराग ढंगकी होती थीं । उन प्रतिमाओं में दिगम्बरी प्रतिमाओंसे केवल लंगोट मात्रका अंतर रहता था । अन्य सब अंगों में दिगम्बरी मूर्तियो समान वे भी वीतरागता संयुक्त होती थीं । किन्तु आजकल श्वेताम्बरी भाइयोंने उन अर्हन्त मूर्तियोंको कृष्ण, रामचन्द्र आदिकी मूर्तियों से मी बढकर वस्त्र आभूषणोंसे सुसज्जित करके सरागी बना दिया है ।
पाषाण निर्मित वीतरागता -- छबिसंयुक्त प्रतिमाओंका वे खूब शृङ्गार करते हैं। प्रतिमा के नेत्रोंकी शोभा बढाने के लिये वे नेत्रोंके स्थानको
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