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किञ्चिद्वक्तव्य.
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संसारमें थोड़े ही मनुष्यों ने ऐसे पंथका नाम सुना होगा, कि जो दया करने और दान देनेमें अधर्म समझता है। आज मैं ऐसेही एक पंथ के मन्तव्यों को पद्यबंध में चित्रित कर, प्यारे पाठकोंके सामने उपस्थित करता हूँ । इस मतने दया और दानका बिलकुल ही निषेध किया है। यह मूँह की बात नहीं है, परन्तु इस मतकी 'धर्मविध्वंसन' 'ज्ञानप्रकाश' ' तेरापंथी कृत देवगुरु धर्म ओलखाण, ' 'जिनज्ञानदर्पण, ' ' तेरापंथी श्रावकों का सामायक पडिकमणाअर्थ सहित तथा 'जैनज्ञानसारसंग्रह ' वगैरह पुस्तकोंमें जोर शोर स इनका प्रतिपादन किया गया है और इन पुस्तकों को पढ करके ही मैंने यह ' शिक्षा- शतक' बनाया है। पाठक, इसको पढ़ करके इस पंथकी दयालुताका अच्छी तरह परिचय कर सकते हैं.
जिन महाशयोंको, इस शतक में दिए हुए प्रसंगों को विशेष विस्तार से जाननेकी इच्छा होवे, वे अभी कुछ दिनों में प्रकाशित होनेवाली ' तेरापंथी - हितशिक्षा ' और ' तेरापंथ-मत समीक्षा' नामक पुस्तकों को मंगवाकर देखें । क्योंकी इन पुस्तकोंमें दया - दान और मूर्तिपूजाका शास्त्रप्रमाणोंसे अच्छी तरह प्रतिपादन किया गया है ।
हिन्दी पद्यरचना करनेकी मेरेमें शक्ति नहीं होने पर भी, मैंने यह साहस, जिस अभिप्रायसे किया है, उसको ध्यान में रख करके पाठक इसको पढ़ें, और लाभ उठावें, बस इसीमें मैं अपने साहसकी सफलता समझता हूँ ।
उदयपुर - मेवाड वर्षारंभ, वीर सं. २४४२
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} विद्याविजय.
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