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प्राचीन तिब्बत ले लेता है लेकिन भिता-पात्र में कुछ छोड़ देने के बजाय तिलोपा वह सब का सब चट कर जाता है और कहता है-"यह चावल इतना मोठा है कि अभी मैं इतना ही आसानो से और खा सकता हूँ।" __दूसरी बार आज्ञा पाने के पहले ही नरोपा पात्र लेकर उस घर के दरवाजे पर पहुँचा जहाँ का चावल उसके गुरु को इतना पसन्द आया था, पर इस बार उसे दरवाजा बन्द मिला। नरोपा ने न आव देखा न ताव, लात मारकर दरवाजा खोल दिया और अन्दर 'घुस पड़ा। रसोईघर में जाकर वह हंडे से अपने पात्र में चावल उडेल ही रहा था कि लोग बराल के कमरे से दौड़े आये और उसे पीटते-पीटते अधमरा कर डाला। होश में आने पर नरोपा अपने गुरु के पास पहुँचा; किन्तु तिलोपा ने सहानुभूति-सूचक एक शब्द भी अपने मुंह से नहीं निकाला। "मैं देखता हूँ; मेरे कारण तुम्हें थोड़ी-सी मार खानी पड़ गई। बोलो, क्या मुझे गुरु बनाने का तुम्हें अब भी अफसोस नहीं है ?" नरोपा इसको मानने के लिए तैयार नहीं होता। यह कौन सी बड़ी बात है। वह अपने गुरु के लिए आवश्यकता पड़ने पर जान तक दे सकता है।
दूसरे दिन राह में चलते-चलते जब एक गन्दे पानी का नाला दिखलाई पड़ा तो तिलोपा ने अपने शिष्यों से पूछा, "अगर मैं हुक्म दू तो तुममें से कौन, उस गन्दे पानी को पीने के लिए तैयार हो सकता है ? और जब तक दूसरे शिष्य एक दूसरे का मुंह ताकते खड़े रहते हैं, नरोपा दौड़कर चुल्लू से भर भरकर वह पानो पोने लगता है। न तो उसे गन्दगी से झिझक होती है और न अपने धर्म-भ्रष्ट होने की हिचक ।
एक दूसरो परीक्षा इससे कुछ कड़ी होती है।
एक रोज़ गुरु के लिए भोजन की सामग्री लेकर जब नरोपा लौटा तो क्या देखता है कि तिलोपा कई बड़े बड़े सूये आग में तपाये
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