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तिब्बत के लामा दावसन्दूप से ज्ञात हुआ कि वह एक रमता योगी (नालजो) है और कुछ दिनों से पास के एक मठ में ठहरा हुआ है।
जिस ढङ्ग से वह दलाई लामा और भीड़ के सीधे-सादे लोगों पर हँस रहा था उससे मुझे बड़ा कौतूहल हुआ। मैंने सोचा, इससे मिलना चाहिए और नहीं तो कुछ नई बातों का पता ही लग जायगा। मैंने दावसन्दूप से अपनी इच्छा प्रकट की। वह राजी हो गया।
शाम होते-होते हम दोनों उस गुम्बा (मठ) में पहुँचे। ल्हा-खगा* में एक आसनी पर बैठा हुआ नालजो अभी-अभी अपना भोजन समाप्त कर रहा था। हमने प्रणाम किया। उत्तर में उसने केवल सर हिला दिया। हमारे लिए भी बैठने को
आसनी आई और पीने को चाय मिली। ___मैं सोच ही रही थी कि बातचीत का सिलसिला कैसे प्रारम्भ किया जाय कि वह विचित्र व्यक्ति एकाएक हँसने लगा और अपने आप न जाने क्या बड़बड़ाया। दावसन्दूप कुछ मिमका हुआ सा लगा।
"वह क्या कहता है ?" मैंने पूछा।
"क्षमा कीजिए" मेरे लोचवे ने कहा-"ये नालजो कभी-कभी बड़ो भद्दी बातें कह देते हैं । मुझे आपसे बतलाने में हिचक होती है।" ___ "वाह ! इसी तरह की सारी बाता की जानकारी करने तो मैं निकली ही हूँ।"
"अच्छा. तो माफ कीजिएगा मैं अनुवाद करता हूँ-"यह सुसरी यहाँ क्या बनाने आई है ?" __इस असभ्यता से मुझे थोड़ा सा भी आश्चर्य नहीं हुआ। भारत में भी ऐसी कई साधुनी मेरे देखने में आई थीं जो प्रत्येक पास आनेवाले को गाली देने की एक आदत सी डाल लेती हैं।
* वह कमरा जिसमें धार्मिक मूर्चियां रखी जाती हैं।
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