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उपसंहार
१६९ एक व्यापारी हर साल माल लेने के लिए हिन्दुस्तान आता था। उसकी बूढ़ी माता हर बार उसे 'पवित्र धाम' से कोई न कोई चिह्न लाने का आग्रह करती थी और हर बार व्यापारी भूल जाता था। आखिरी बार जब घर लौटते समय उसका रास्ता कुछ घण्टों का रह गया तो उसे अपनी बुढ़िया मा की माँगी हुई चीज़ की याद आई। उसे बड़ी लज्जा मालूम हुई और वह बिगड़ी बात बनाने के लिए कोई उपाय सोचने लगा। __एकाएक उसकी निगाह सड़क के किनारे पड़े हुए एक कुत्ते के टूटे जबड़े पर पड़ी। उसने उसे उठा लिया और उसमें से एक दाँत तोड़कर उसे धो-धाकर रेशम में लपेटा। फिर ले जाकर उसे अपनी भोली-भाली वृद्धा माता को सौंप दिया। उस बेचारो को पट्टी क्या पढ़ाई कि इससे बढ़कर मूल्यवान् चिह्न हो ही नहीं सकता था। वह स्वयं भगवान् सारिपुत्रों का दाँत था जो उसे भारतवर्ष के एक बड़े मन्दिर के किसी दयालु पुजारी ने प्रसाद के साथ दिया था।
बेचारी बुड्ढो प्रसन्नता के मारे फूली न समाई। अपने लायक बेटे को उसने लाख-लाख बलैयाँ ली और सारिपुत्र के दाँत को एक चाँदी की डिबिया में बन्द कर उसे देव गृह में वेदी पर रख दिया। रोज उसकी पूजा करती, घी के दिये जलाता, आरती उतारती और अड़ोस-पड़ोस की औरतें भी पूजा में उसका साथ देतीं। कुछ समय के बाद, कहते हैं, उसी दाँत से एक प्रकार के तेज की किरणें फूटकर निकलने लगी थीं।
इस कहानी में भी हमें तिब्बतियों को मानसिक विचारों के केन्द्रीकरणवाली धारणा की पुष्टि देखने को मिलती है। इन सबकी तह में वही बात है। सबका आधार वही हमारी इच्छा-शक्ति है।
* भगवान् गौतम बुद्ध के एक परम प्रिय शिष्य ।
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