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श्रीगणेशाय नमः ।
अथ पत्रीमार्गप्रदीपिका ।
सोदाहरणभाषाटीकासहिता ।
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अथ मंगलाचरणम्.
नवा श्रीशिवशारदा गणपतिब्रह्मार्क मुख्यग्रहान् पत्रीमार्गप्रदीपिकां स्फुटतरां कुर्वे महादेव वित् । यत्पक्षे हि घटन्ति शुद्धखचराः कार्यास्तु तत्पक्षका स्वव्यक्षोदययोः खरामविहृतौ प्राप्ताः पलादिध्रुवाः ॥ १ ॥ नत्व श्रीगुरुपत्कजं गजमुखं साम्यं शिवं चाच्युतं पत्रीमार्गप्रदीपिका सुविवृतिं कुर्वे सतां प्रीतये | पाराशर्य्यकुलाभिजात गणकोऽहं श्रीनिवासाभिधो विद्वन्मण्डितरत्न पूर्वसतिकृच्छ्रीपाठकोपाह्वयः ॥ १ ॥ निर्विघ्नता से ग्रन्थ समाप्त होनेके अर्थ ग्रंथकर्त्ता प्रथम गुरु गणेशादिदेवोंको नमस्काररूप मंगलाचरण शार्दूलविक्रीडितवृत्तके पूर्वार्द्धसे करके ग्रन्थारम्भ करते हैं
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श्रीशिवजीको, सरस्वतीजीको, गणपतिजीको, ब्रह्माजी और सूर्यको आदि ले नवग्रहों को नमस्कार करके महादेव ज्योतिर्विद अत्यंत सरल पत्रीमार्गप्रदीपिका ( जन्मपत्रीके मार्गको प्रकाशित करनेकी प्रदीपिका ) नाम ग्रन्थको करता है, आर्यब्रह्मसौ दिपक्षों से अपने देशमें जिस पक्षके स्पष्ट यह वेध करनेसे दृक्तुल्य होते हों उसी पक्षके स्पष्ट ग्रह करना, स्वदेशोदेय और लंकोदयोंक ३०
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१ भाषाकार विघ्नविच्छेदार्थ मंगलाचरणरूप गुरु गणपतिको प्रणामपूर्वक भाषारचनाका प्रयोजन तथा अपना गोत्र और निवासस्थान कहता है
श्री ( शोभायुक्त ) निजगुरु ( महादेवजी ) के चरणकमल और गजमुख (गणपति) पार्वतीसहित शङ्कर और लक्ष्मीसहित विष्णुभगवान्को नमस्कार करके पराशरकुलमें उत्पन्न हुआ (पराशरगोत्र ) पाटक ऐसे उपनामसे प्रसिद्ध विद्वन्मंडलीकरके सुशोभित रत्नपुर ( रतलाम शहर ) में निवास करनेवाला नैं श्रीनिवासगणक ( ज्योतिर्विद् ) सज्जनोंके प्रसन्न होनेके अर्थ पत्रीमार्गप्रदीपिका की भाषाटीका करता हूँ ॥ १ ॥
२ गणेशदैवज्ञः- “लकोदया विघटिका गजमानि गोङ्कदखास्त्रिपक्षदहनाः क्रमगोत्क्रमस्थाः । हीनान्विताश्वरदलैः कमगोत्क्रमस्थैमेषादितो घटत उत्क्रमतस्त्विमे स्युः " ॥ १ ॥
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