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११मंच
(१४) पत्रीमार्गप्रदीपिका।
जन्मकुंडलीमें सूर्य २ द्वितीयभावमें स्थित है ,द्वितीयभावकी आरंभसंधि १० १० से सूर्य १०।१६ अधिक है और द्वितीयभावकी विराम (आमकी) सांध ११ । १४ से न्यून है इसलिये यह सूर्य अंत्य आरंभसंधिके बीच हुआ, इससे द्वितीय भावमें ही स्थित रहा. मंगल ११ १६ यह तृतीयभावकी आरंभसंधि ११ । १४से न्यून है इससे मंगल द्वितीयभावमें स्थित जानना; ऐसे ही गुरु ३। ० है यह सप्तमभावकी आरंभसंधि ३ । ९ से अल्प है इसकारण ६ छठे भावमें स्थित हुआ, इसीमकार शेष सर्व ग्रह भावोद्भव (चलित)चक्रमें जानना । || अथ चलितचक्रम् ।
_अथ क्षय-चय-फल-विश्वानयनमाहभावतुल्ये ग्रहे रूपं संधितुल्ये तु निष्फलम् । | भावसंध्यंतरेणाप्तं खेटसंध्यंतरं च यत् ॥८॥ भावान्न्यूनाधिके खेटे फलं वृद्धिक्षयाभिधम् ।
फलस्यान्यंशको विश्वा यदा विंशहतं फलम्९॥ अब क्षय चय फल विश्वाआनयनकी रीति कहते हैं-भावके अंश कला विकलाके समान ( बरोबर ) ग्रह हो तो पूर्णफल होता है, उस ग्रहका (१०० फल जानना ) और संधिक अंश कला विकलाके तुल्य (बरोबर) ग्रहके हों तो निष्फल होता है ( उस ग्रहका ०1०1० फल जानना) न्यूनाधिक हो तो भावसंधिके अंदरका भाग देना ग्रहसंधिके अंतरमें (ग्रह जिस भावमें स्थित हो उस भावसे न्यून हो तो उस भावकी आरंभसंधिसे ग्रह भावका अंतर करना और भावसे ग्रह अधिक हो तो विराम (आगेकी ) संधिके साथ ग्रहभावका अंतर करना) जो फल लब्ध आवे वह ॥ ८॥ भावसे यह न्यून हो वो वृद्धि (चय) और भावसे यह अधिक हो तो क्षयसंज्ञक फल जानना, फलका तृतीयांश (फलके तीनका भाग देना) विश्वा जानना अथवा आये हुए फलको बीस गुणा करना सो विश्वा हो ॥ ९ ॥
उदाहरण । सूर्य १० । १६ । ५३ । ३२ यह द्वितीय भावसे न्यून है अतएव द्वितीय
१ घरणीधरः-" न्यूनसंधिग्रहाद्भावाच्छोध्यो भावाल्पके खगे ॥ तदग्रिमाच्च संशोध्यो प्रहो भावस्तथाधिके ॥” इति ॥
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