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शंकाओं का समाधान कोटा स्टेट के अन्तर्गत अटारू नामक ग्राम का वि० सं० ५०८ का शिलालेख जो इतिहासज्ञ मुन्शी देवीप्रसादजो की शोध से प्राप्त हुआ उसका आपने " राजपूताना की शोध खोज" नामक पुस्तक में भी उल्लेख किया है इनसे और अन्य साधनों से ओसवालों का उत्पत्ति समय विक्रम की दूसरी तीसरी शताब्दी स्थिर होता है, तात्पर्य यह है कि ज्यों ज्यों शोध कार्य होता रहेगा त्यों त्यों इतिहास पर प्रकाश पड़ता जायगा। इसीलिए विद्वानों का कहना है कि किसी लेखक को हताश होने की कोई आवश्यकता नहीं; वे अपना कार्य सोत्साह करते रहें। ___ "मेरा जन्म ओसवाल जाति में हुआ, अतः मुझे ओसवाल जाति एवं जैन-धर्म का गर्व भी है, और मैंने इस विषय में यथासाध्य प्रयत्न भी किया है । करीब ८ वर्ष पूर्व मैंने "ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय" नाम की एक छोटी सी पुस्तक भी लिखी थी जिसने इस विषय पर अच्छा प्रभाव डाला ।" इतिहास विषय की ज्यों ज्यों विशेष चर्चा को जाती है त्यों त्यों उसका तथ्य भी निकलता जाता है, कारण इस प्रवृत्ति से लेखक को अधिकाधिक प्रमाणों की खोज करनी पड़ती है । किसी ऐतिहासिक विषय में शंका करना भी अनुचित नहीं है आज हमारे सामने इस विषय की अनेक शंकाएं समुपस्थित हैं जिनका समाधान करना ही इस निबन्ध का उद्देश्य है । ___उपकेश ( ओसवाल ) वंश के संस्थापक आद्याचार्य श्री रत्नप्रभसूरि थे इस बात को श्रीरत्नप्रभसूरि जयन्ती महोत्सव नामक पुस्तक में विस्तृत रूप से वर्णित की है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि वि. पूर्व ४०० वर्ष अर्थात् वीरनिर्वाण सं० ७० में मरुधर प्रान्त एवं उपकेशपुर नगर में पधारे और अजैनों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा दे जैन बनाया और उस नवदीक्षित जनसमूह का नाम "महाजन वंश" स्थापित किया,
आगे चलकर वे उपकेशपुर से अन्य प्रान्तों में जा बसने से उपकेश वंशी कहलाए, यदि यह नामसंस्कार मूल समय के बाद चार पाँच शताब्दी से हुआ हो, तो भी असम्भव नहीं है, और इस नाम का ही निर्णय करना हो तो विक्रम की प्रथम शताब्दी से पूर्व मिलना असम्भव है, आगे चलकर विक्रम की दशवीं-ग्यारवीं शताब्दी में उपकेशपुर का अपभ्रंश भोशियों हुआ, इस हालत में उपकेशवंश का नाम भी मोस.
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