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प्राचीन प्रमाण विद्याधरशाखा जिन में तपागच्छ और खरतरगच्छ आदि चन्द्र कुल में है। तथाच :
तदन्वये यतदेवसूरि, रासीद्धियां निधिः ॥ दशपूर्वधरोवज्रस्वामी, भुव्यभवद् यथा ॥२३१॥ दुर्भिक्षे द्वादशाब्दीये, जनसंहारकारिणी ॥ वर्तमानेऽनाशकेन, स्वर्गेऽगुबहुसाधवः ॥२३२॥ ततो व्यतीते दुर्भिक्षे, चावशिष्टेषु साधुषु ॥ मिलितेषु यक्षदेवाचार्या, श्चन्द्रगणेऽमिलन् ॥२३३॥
अर्थः-उस उपकेशगच्छ में श्री यक्षदेवसूरि दर्श पूर्व-धर वनस्वामी के सदृश बुद्धि के सागर इस भूतल पर हुए । एक समय द्वादश वार्षिक अकाल पड़ने पर बहुतजन संहार हुआ और अनेक साधु भोजनाऽभाव से स्वर्गलोक को चले गये। अनन्तर उस दुर्भिक्ष के मिटने पर और मरने से बचे साघुत्रों के एक स्थान में इकट्ठा होने पर श्री यक्षदेवाचार्यसूरि ने चन्द्रगणादि की स्थापना की।
१०-प्राचार्य श्री विजयानन्द सूरि ने अपने जैन धर्म विषयक प्रभोत्तर नामक ग्रंथ में लिखा है कि श्रीदेवऋद्धि गणी क्षमाश्रमणजी ने उपकेशगच्छाचार्य देवगुमसूरि के पास एक पूर्व सार्थ और श्राधा पूर्व मूल एवं डेढ़ पूर्व का अभ्यास किया था। इसका समय विक्रम की छटी शताब्दी के पूर्वार्द्ध का है। यही वात उपकेंश गच्छ पट्टावली में लिखी है। इससे यह सिद्ध होता है कि छठी सदी में उपकेशगच्छा. चार्य मौजूद थे तो उपकेश जाति तो इनके पहिले अच्छी उन्नति और आबादी पर होनी चाहिए।
११-इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसादजी जोधपुर वाले ने राजपूताना की शोध ( खोज ) करते हुए जो कुछ प्राचीन सामग्री उपलब्ध की उसके आधार पर एक "राजपूताना की शोध खोज" नामक पुस्तक लिखी, जिसमें लिखा है कि "कोटा राज के अटारू नामक प्रांम में एक जैन मन्दिर जो खण्डहर रूप में विद्यमान है, जिसमें एक मूर्ति के नीचे वि० सं० ५०८ भैशाशाह के नाम का शिलालेख है उन
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