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इसी प्रकार गुजरात के भी आओसवाल भाई गोत्र कर बाहर कम रखने के कारण अपने अपने गोत को भूल गये हैं। फिर भी वहाँ के कुछ ओखवाळ भाकों को अपने अपने गोत मालूम हैं। जो लोग भूल गये हैं, उन्हें वेटा कर अपने अने मोखों पर पता लगाना और विवाहादि के समय पर टालना चाहिये, ताकि अपने को उनके साथ सामाजिक व्यवहार में किसी प्रकार की बाधा न पड़े।
सजनो ! यह घोषित करते हुए मुझे असीम प्रसन्नता होती है कि हमारे समाज से संकोच विचार और अनेक कुप्रथायें हटती जा रही हैं। विदेश मना-गमन की बाधायें भी हट गई हैं। इन दिनों बालविवाह, बृद्धविवाह, कन्याविक्रय, फिजूलमानों आदि कुरीतियों के दुःखद दृष्टान्त कम दूष्टिगोचर होते हैं। फिर भी इसका सभी मूलोच्छेद नहीं हुआ है। यह समय आया है जब कि हम लोगों को इन को समान पूरा करने में अपनी सारी शक्ति लगा देनी चाहिये। जिन लोगों के हाथों में इस समय समाज का सूत्र है, उनका भार इस सम्बन्ध में बहुत ही गुरुतर हो जाता है। प्रायः देखा जाता है कि उनकी छोटी छोटी कमजोरियों के द्वारा भी अनेक सामाजिक कुहीतियों को प्रोत्साहन मिलता है। समाज उन्हें केवल संचालक के रूप में-सारथी के रूप में ही नहीं देखता, वह उनसे आदर्श की आशा रखता है। जनता उन्हें अनुकरणीय समझती है। अतः उन्हें किसी प्रकार का कमजोरी दिखानी उचित नहीं।
सामाजिक संस्कारों में विवाह संस्कार का प्रमुख स्थान है। स्थान स्थान पर इस सम्बन्ध में भिन्न भिन्न प्रकार की प्रथायें प्रचलित हैं। खेद का विषय है कि इस समय तक इस सम्बन्ध में कोई सर्वमान्य जातीय नियम नहीं बन सका है। इस प्रकार के नियम बनाने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। ऐसा न होने से समाज की अवस्था सुधर नहीं सकती। धनाड्यों की बांधली से गरीब भाई बोतरह पिस जाते हैं। धनीमानी श्रीमानों के पास तो पानी की तरह बहाने के लिये यथेष्ट धन रहता है। यद्यपि इसका कुपरिणाम उन्हें भी आगे चलकर भोगना पड़ता है, लेकिन इस सामाजिक संघर्ष में गरीब भाइयों को बहुत कष्ट उठाना पड़ता है। हम लोगों का प्रधान कर्तव्य है कि सामाजिक नियम बना कर विवाह सम्बन्धी फिजूलखर्ची को एकदम रोक दें, जिस से सामाजिक प्रतिष्ठा की वेदो पर हमारे गरीब भाइयों का बलिदान न हो। सर्वसम्मति से विवाह की रीति रस्म दो या तीन प्रकार की बनाई जांय तो उन्हें कार्यरूप में सब जगह आसाती से लाया जा सकता है।
सज्जनो! विवाह प्रकरण को समाप्त करने के पहले, बाल विवाह के सम्बन्ध में भी कुछ कहना आवश्यक सा प्रतीत होता है। अति प्राचीन कालमें बाल का की प्रथा नहीं थी। मनुष्य जीवन को मूल्यवान बनाने के लिये अच्छे अच्छे नियम प्रचलित थे। ब्रह्मचर्य के साथ गुरु से शिक्षा प्राप्त करके शारीरिक उन्नति के साधनों का अभ्यास करते ऽ। प्रश्चात् वयः प्राप्त होने पर विवाह करके सांसारिक सुख भोगते थे। उस समय अन्तर्जातीय विवाह भी निषिद्ध न था। दाम्पत्य जीवन को सुलो बनाने के लिये स्मांस
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