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महाराजा अभयसिंहजी इस घटना के बाद महाराज दिल्ली से रवाना होकर साँभर, अजमेर और मेड़ते होते हुए जोधपुर चले आएं।
कुछ दिन बाद राजाधिराज बखतसिंहजी के राजकर्मचारियों के साथ अधिक सख़्ती का बरताव करने के कारण उनके और महाराज के बीच मनोमालिन्य हो गया । इस पर वि० सं० १७६६ के आषाढ ( ई० सन् १७३६ के जून ) में बखतसिंहजी ने मेड़ते पर अधिकार करने के लिये चढ़ाई की । यह देख महाराज ने उनको समझाने के लिये अपने विश्वास-पात्र पुरुषों को भेजा । परंतु जब उन्होंने इसकी कुछ भी परवा न की, तब महाराज स्वयं सेना सजाकर उनके मुकाबले को चले । परंतु अन्त में शीघ्र ही दोनों भाइयों के बीच मामूली मेल हो गया।
इस झगड़े से निपटकर महाराज ने फिर बीकानेर पर चढ़ाई की', और वहाँ पहुँच किले के चारों तरफ़ घेरा लगा दिया । जब कुछ दिन बीत जाने पर वहाँ के किले की रसद समाप्त हो चली, तब बीकानेरवालों ने, अपने आदमी भेजकर, बखतसिंहजी से सहायता की प्रार्थना की । परंतु राजाधिराज ने बड़े भ्राता के विरुद्ध युद्ध में स्वयं बीकानेरवालों का पक्ष लेना अनुचित समझ, उन आदमियों को जयपुर महाराज जयसिंहजी के पास भेज दिया। इस पर जयसिंहजी ने सोचा कि यदि बीकानेर पर महाराज अभयसिंहजी का अधिकार हो गया, तो इनकी ताक़त और भी बढ़ जायगी, और जयपुर तक का बचना कठिन हो जायगा । यह सोच उन्होंने बीस हजार सैनिक लेकर जोधपुर पर चढ़ाई कर दी । इसकी सूचना पाते ही, वि० सं० १७९७ ( ई० सन्
१. ख्यातों में लिखा है कि वि० सं० १७६५ ( ई० सन् १७३८) में महाराज की आशा से
राठोड़-वाहिनी ने भिणाय की तरफ़ चड़ाई कर गौड़ अमरसिंह से राजगढ़ और सावर के शक्तावतों से घटियाली, पीपलाद और चौसल आदि छिन लिए थे । अन्त में शक्तावतों ने
दस हज़ार रुपये देकर इनसे सुलह कर ली। २. उस समय वहाँ पर जोरावरसिंहजी का राज्य था । ३. बीकानेर-कौंसिल के मेम्बर मुंशी सोहनलाल के लिखे उक्त रियासत के इतिहास में
लिखा है किः(अभयसिंह ने) शहर बीकानेर पर हमला करके उसके एक हिस्से को तीन पहर तक लूटा । एक लाख रुपये का माल गनीमत में उसके हाथ लगा । राजा अभयसिंह का डेरा मन्दिर लदमीनाथजी के पास पुराने किले की जगह था, आदि (देखो पृ. १६६) । (इस इतिहास में जहाँ-जहाँ बीकानेर के इतिहास का नाम आया है, वहाँ-वहाँ इसी इतिहास से तात्पर्य है)।
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