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महाराजा जसवंतसिंहजी ( प्रथम ) रङ्गज़ेब को इस प्रकार अपना पीछा करते हुए देख दारा पंजाब से मुलतान की तरफ़ होता हुआ ठट्ठे ( सिन्ध ) की तरफ़ चला गया । इस पर वि० सं० १७१५ के मँगसिर ( ई० स० १६५८ की नवम्बर ) में जब आलमगीर दिल्ली की तरफ़ लौटा, तब महाराजा जसवन्तसिंहजी भी मार्ग में पहुँचकर उससे मिले । उस समय फिर उसने खासा ख़िलत्र्मत और एक नादरी ( सदरी ) देकर इनका सम्मान किया, तथा मँसिर सुदि १ ( २३ नवम्बर ) को ( नौरोज़ के उत्सव पर ) इन्हें एक जड़ाऊ तुर्रा दियो ।
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इसके बाद जब बादशाह को शुजा की चढ़ाई की सूचना मिली, तब उसने अपने पुत्र मुहम्मद सुलतान को उसके मुक़ाबले को रवाना किया और शाह शुजा के इलाहाबाद के पास ( कोड़े से ४ कोस पर ) पहुँचने तक स्वयं भी वहाँ जा पहुँचा । वि० सं० १७१५ की माघ वदि ६ ( ई० स० १६५९ की ४ जनवरी) को खजवे के पास दोनों सेनाओं के बीच युद्ध की तैयारी हुई । उस समय महाराज औरङ्गज़ेब की सेना के दक्षिण - पार्श्व के सेनापति थे । ख्यातों से ज्ञात होता है कि इसी बीच शाह शुजा ने पत्र लिखकर महाराज से प्रार्थना की कि आप जैसे वीर और मनस्वी राठोड़ के विद्यमान होते हुए भी औरंगज़ेब ने अपने वृद्ध पिता ( बादशाह शाहजहाँ ) को क़ैद कर लिया है और अब भाइयों को मार डालने की चिंता में है । इसलिये आपको मेरी सहायता कर वृद्ध बादशाह का संकट मोचन करना चाहिए । इस पर महाराज
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१. इसके बाद दाराशिकोह ठट्ठे के किले का प्रबंध कर अहमदाबाद चला गया । बर्नियर लिखता है-“उस समय वहाँ का सूबेदार औरंगज़ेब का श्वसुर शाह नवाज खाँ था । उसने युद्ध की यथेष्ट सामग्री रहते हुए भी नगर के द्वार खोल दिए, और दारा का बड़ा आदर-सत्कार किया । यद्यपि लोगों ने दारा से कह दिया था कि यह पुरुष कपटी है, तथापि उसके सरल व्यवहार से मुग्ध होकर दारा ने उस पर विश्वास कर लिया, और राजा जसवंतसिंह आदि ने शीघ्र सेना लेकर उसकी सहायता में पहुँचने के बारे में जो पत्र लिखे थे, उन्हें भी उसको दिखला दिया। इसके बाद जब औरंगज़ेब को दारा के अहमदाबाद पहुँचने की सूचना मिली, तब पहले तो उसने उस पर चढ़ाई करने का विचार किया । परन्तु अंत में यह सोचकर कि अहमदाबाद की तरफ जाने में प्रबल पराक्रमी राजा जयसिंह और जसवंतसिंह के राज्यों में से होकर जाना पड़ेगा उसने वह विचार छोड़ दिया और इसीसे वह शाहजादे शुजा को रोकने के लिये इलाहाबाद की तरफ चल पड़ा ।
बर्नियर' की भारत - यात्रा, भा० १, पृ० ७६ - ८० ।
२. प्रालमगीरनामा, पृ० २२० ।
३. श्रालमगीरनामा, पृ० २२६ ।
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