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मारवाड़ का इतिहास
ख्यातों में लिखा है कि एक बार जिस समय सवाई राजा शूरसिंहजी शाहजादे खुरम और नवाब खाँखाँनान् के साथ दक्षिण में महकर के थाने पर थे, उस समय शत्रुओंने आकर उस नगर को घेर लिया । इस प्रकार घेरे जाने से शाही सेना का संबन्ध बाहर से बिलकुल टूट गया और उसे रसद का मिलना बंद हो गया । इस पर कुछ दिन तक तो किसी तरह काम चलता रहा, परन्तु अन्त में नाज की कमी के कारण उसकी दर बहुत चढ़ गई । यह देख राठोड़-सरदारों ने जैतावत कुम्भकर्ण को मेजकर महाराज को इस बात की सूचना दी । परन्तु महाराज ने उसे अपनी पाकशाला के सुवर्ण के बर्तन देकर समझा दिया कि अभी तो इनको बेचकर कुछ दिन के लिये नाज का प्रबंध करलो, तब तक कुछ न कुछ उपाय हो ही जायगा । परन्तु जब कुछ ही दिनों बाद फिर वही कठिनता उपस्थित हुई और शाही अमीरों के किए कुछ भी प्रबन्ध न हो सका, तब कुम्भकर्ण ने महाराज की सेवा में उपस्थित होकर शत्रुओं पर आक्रमण करने की आज्ञा चाही : इसपर महाराज ने खाँखाँनान् से भी सम्मति ले लेना उचित समझा । परन्तु उसने बादशाह की इच्छा के विरुद्ध शत्रु से युद्ध छेड़ देने से साफ इनकार कर दिया । कुम्भकर्ण को इस प्रकार निश्चष्ट होकर शत्रुओं के बीच घिरा रहना असह्य हो रहा था । इसलिये खाँखाँनान् के इनकार कर देने पर भी उसने केवल अपने योद्धाओं को लेकर बीजापुरवालों पर हमला कर दिया । यद्यपि इसमें उसके कई वीर मारे गए और वह स्वयं भी बहुत जखमी हुआ, तथापि उसने दक्षिणियों के झंडे को छीन कर ( सादा के पुत्र ) कामा के साथ महाराज के पास भेज दिया। यह देख महाराज भी युद्ध के लिये उत्सुक हो उठे
और इन्होंने बादशाही आज्ञा की प्रतीक्षा में बैठे हुए खाँखाँनान् को जबरदस्ती तैयार कर शत्रुओं पर हमला कर दिया । घोर युद्ध के बाद शत्रु भाग खड़े हुए
और मैदान शाही सैनिकों के हाथ रहा । इसके बाद खाँखाँनान् ने कुम्भकर्ण के लिये एक पालकी मेजकर उसे रणस्थल से अपने डेरे पर बुलवाया और उसकी चिकित्सा का पूरा-पूरा प्रबंध किया । इससे कुछ दिनों में उसके सारे घाव भर गए ।
इसके बाद जब खाँखानान् ने गढ़-पिंडारा विजय किया, तब वहाँ पर उसे चतुर्भुज विष्णु की एक सुंदर मूर्ति हाथ लगी । इसे उसने प्रेमोपहार के रूप में महाराज को मेट कर दिया । यह मूर्ति अब तक जोधपुर के किले में विद्यमान है।
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