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राजा उदयसिंहजी सूचना पाते ही राजा उदयसिंहजी ने देवड़ा कल्ला को सिरोही की गद्दी पर बिठा दिया, और कुछ दिनों में वहां का प्रबन्ध ठीक कर यह मारवाड़ में लौट आएं।
इसके बाद ( इसी वर्ष वि० सं० १६४४ = ई० सन् १५८७ में ) उदयसिंहजी सिवाने पर चढ़ाई कर वहाँ के किले को घेर लिया। कई दिनों तक दोनों पक्षों के बीच बराबर युद्ध होता रहा । बादशाही और महाराज की सेनाओं के खुले स्थान में और राव कल्ला की सेना के किले में होने से बाहरवाली सेना की अधिक क्षति होने लगी । इस पर शाही सेना के सेनापतियों ने किले के एक नाई को लालच देकर अपनी तरफ़ मिलाया, और उसी के द्वारा किले के अरक्षित भाग का पता लगाकर रस्सियों द्वारा उधर से अन्दर घुसने का प्रबन्ध कर लिया । जब इस प्रकार सब प्रबन्ध ठीक हो गया, तब रात्रि के समय शाही सेना के साथ ही महाराज की सेना भी चुप-चाप किले में प्रविष्ट होगई । यह देख किले में की राजपूत - रमणियाँ तो जौहर (अग्नि प्रवेश ) कर अपने वीर - पतियों के पूर्वही इस लोक से बिदा होगईं, और उनके वीर-पति सम्मुख रण में शत्रु से भिड़कर स्वर्ग को सिधारे । इस युद्ध में वीरवर कल्ला ने भी अच्छी वीरता दिखाई थी । परन्तु अन्त में वह खीची गणेशदास के हाथ से मारा गयो । इससे सिवाने पर बादशाह का अधिकार
१. अकबरनामे में लिखा है कि सने जुलूस ३८ - हि० सन् १००१ ( वि० सं० १६५० = ई० सन् १५६३ ) में बादशाह ने 'मोटा राजा' को सिरोही के राव ( सुरतान ) को दण्ड देने की आज्ञा दी । इससे अनुमान होता है कि या तो मारवाड़ की ख्यातों और 'अकबरनामा' इन दोनों में से किसी एक में संवत् गलत लिखा गया है, या फिर वि० सं० १६५० में भी उदयसिंहजी ने सिरोही पर दुबारा चढ़ाई की होगी । (देखो अकबरनामा, दतर ३, पृ० ६४१ ) परन्तु 'सिरोही के इतिहास' में भी इस घटना का वि० सं० १६४५ ( ई० सन् १५८५ ) के प्रारम्भ के क़रीब होना ही लिखा है । (देखो पृ० २३४-२३५ ) ।
२. परन्तु इसका उल्लेख फारसी तवारीख़ों में नहीं मिलता है । ख्यातों में यह भी लिखा है कि रायमल का पुत्र ( मालदेवजी का पौत्र ) कल्ला ( कल्याणमल्ल) सिवाने का स्वामी था। जिस समय वह शाही सेना के साथ लाहौर में था, उस समय उसके और एक शाही मनसबदार के बीच झगड़ा हो गया । इस पर वह उस शाही मनसबदार को मार कर सिवाने चला आया । इसकी सूचना पाते ही बादशाह ने उस पर सेना भेज दी । परन्तु कल्ला की वीरता और सिवाने के दुर्ग की दुर्गमता के कारण उसे सफलता नहीं हुई । यह देख बादशाह ने 'मोटाराजा' को उस पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी ।
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