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मारवाड़ का इतिहास इस पर महाराना ने फिर दृढ़ता धारण करली और उत्तर में उन्हें लिख मेजा
खुशी हूँत पीथल कमध, पटको मूंछाँ पाण;
पछटण है जेते पतो, कलमाँ सिर केवाण । परन्तु राव चन्द्रसेनजी के विषय में ऐसी कोई जनश्रुति नहीं सुनी जाती है ।
विस्मृति का कारण ऐसे ही इन प्रातःस्मरणीय राठोड़-वीर राव चन्द्रसेनजी का नाम और इतिहास इस प्रकार विस्मृति में कैसे विलीन हो गया ? इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि महाराणा प्रताप के पीछे तो उनके पुत्र-पौत्रादि गद्दी पर बैठते रहे । परन्तु राव चन्द्रसेनजी के पीछे वि० सं० १६४० (ई० सन् १५८३) में मारवाड़ का राज्य उनके भ्राता राजा उदयसिंहजी के अधिकार में चला गया। उनके और राव चन्द्रसेनजी के बीच विरोध चला आता था। इसी से उस समय के कवियों और ऐतिहासिकों ने लाभ की आशा न देख इनकी वीर-गाथाओं के कीर्तन की तरफ़ विशेष ध्यान नहीं दिया। इसके अलावा उन्हें इनके स्वाधीनता-प्रेम का गान करने में राजस्थान के तत्कालीन नरेशों के अप्रसन्न होने का भय भी रहा होगा ।
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